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आदिवासी छात्र संगठन का छत्तीसगढ़ सरकार पर बड़ा हमला...आदिवासी विचाराधीन बंदियों के मामले में छत्तीसगढ़ शासन का क्रूर मजाक : योगेश ठाकुर

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साल 2005 में सालवा जुड़ुम शुरु होते ही छत्तीसगढ़ पुलिस/अर्द्ध सैनिक बलों ने राज्य शासन की सहमति से एक नयी रणनीति अपनायी। खास तौर पर बस्तर में, नक्सलियों के आने जाने के रास्ते में पड़ने वाली आबादी/बस्ती के सौ पचास लोगों को जबरिया उठा कर, थाना/जंगल ले जा कर, एक दो दिन मार पीट कर कुछ व्यक्तियों पर झूठे मुकद्दमे बनाना और बाकी को छोड़ देना। कुछ आदिवासियों को तो पुलिस थाने की साफ़ सफ़ाई के काम के लिए तक बंधुआ मजदूर बना कर रोक लेती थी।       

छग पुलिस इन बेकसूर आदिवासियों को फ़ंसाने के लिए नकली पुख्ता सबूत जुटाने तक की तकलीफ़ नहीं उठाती थी और दो तीन साल में ज्यादातर संदिग्ध न्यायालय से बाईज्जत बरी हो जाते थे। लेकिन इस अंतराल में उनका परिवार गरीबी और कर्ज़े में डूब जाता था। ज्यादातर संदिग्धों की उच्च न्यायालय से जमानत ले पाने की पहुंच नहीं थी, अथवा जमानत नहीं मिली, और किसी भी बरी होने वाले आदिवासी को जिला न्यायालय या उच्च न्यायालय ने धारा 250 दंड प्रक्रिया संहिता के तहत मुआवजा नहीं दिलाया। छग उच्च न्यायालय ने एक बार भी विशिष्ट परिस्थितियों के मद्दे नज़र अनुच्छेद 226-227 के तहत कोई राहत पहुंचाने या स्वत: संग्यान लेने की पहल नहीं की। नतीजा यह हुआ कि इन पंद्रह सालों में छग सघन जेल बंदियों के पैमाने पर पूरे देश में नंबर एक का राज्य बन गया, और देश भर में जेलों की क्षमता बढ़ाने का भी कीर्तिमान स्थापित कर दिया।

मेत समीक्षा कर के अनुशंषा करे। लोक अभियोजक को विचाराधीन बंदियों केप्रथम दृष्ट्या बेकसूर आदिवासियों को जेल से छुड़ाने के मांग बरसों से उठती रही है। सुकमा कलेक्टर को नक्सलियों से छुड़ाने की शर्त को पूरा करने के नाम पर तत्कालीन भाजपा सरकार ने निर्मला बुच समिति गठित की थी जिसने देढ़-दो साल में लगभग दो सौ प्रकरणों पर विचार किया। कांग्रेस ने विधान सभा चुनावों में इस मामले पर जनता से सार्वजनिक वादा किया था और सत्ता में आने पर सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति अनंग कुमार पटनाईक की अध्यक्षता में समिति गठित की है। पटनाईक समिति अब तक लगभग सवा तीन सौ मामलों पर अनुशंषा कर पाई है और तीन सौ पर विचारण की प्रक्रिया लंबित है, कुल लगभग आठ हज़ार प्रकरणों में से बाकी पर कोई ठोस शुरुआत तक नहीं हुई है। आदिवासी छात्र संगठन ने दिसंबर से अब तक कई बार शासन का ध्यान इस बात पर दिलाया है कि त्वरित और सार्थक नतीजे के लिए उच्च पदों पर रहे सेवानिवृत्त पदाधिकारियों के बस का यह काम नहीं है। एक्टिविस्ट अधिवक्ताओं या विधिक जानकारों की पंद्रह सदस्यीय समिति को पर्याप्त संसाधन देकर जिम्मेदारी देनी होगी कि तीन माह के भीतर सभी प्रकरणों की साक्ष्य एवं दस्तावेजों सलग-अलग प्रकरण में धारा 321 दंड प्रक्रिया संहिता के तहत विचारण न्यायालय से अनुमति लेनी पड़ेगी कि शासन को अभियोजन से हटने की स्वीकृति मिले। संसदीय अधिनियम संबद्ध होने पर केंद्र शासन की पूर्वानुमति की भी आवश्यकता पड़ेगी। राज्य शासन मात्र दोष-सिद्ध हो चुके बंदियों का दंड ही अनुच्छेद 161 के तहत माफ़ कर सकता है।

इस काम के लिए पांचवीं अनुसूची के पैरा पांच (एक) की शक्तियों का प्रयोग कर के सरल रास्ता भी निकाला जा सकता है। लेकिन उसके लिए पहले महामहिम राज्यपाल को राजनैतिक बयानबाज़ी छॊड़ कर अपनी पदीय सीमाओं को समझते हुए राज्य की कार्यपालिका से समन्वय स्थापित करना होगा। राजभवन द्वारा जनजातीय हित सुनिश्चित करने की दिशा में किए नए प्रयासों को लेकर जनसंपर्क का काफ़ी काम पिछले दो महीने में हुआ है। परंतु जनजातीय हित के असली मुद्दों पर कोई ठोस काम करना टाला जा रहा है। इस राजनैतिक बयानबाज़ी में संविधान के प्रावधानों और उच्चतम न्यायालय की उन पर व्याख्या की उपेक्षा की जा रही है। राजभवन द्वारा इस दिशा में इमानदाराना कार्रवाई से बचने के लिए प्रखर जानकारों का उपहास-उपेक्षा किया जाता है जिसका नतीजा है कि जनजातीय-हित की चर्चा राजनैतिक सौदेबाज़ी बन कर रह गई है। दुर्भाग्य से स्वयं आदिवासी समाज के जन-प्रतिनिधि एवं ज्यादातर सामाजिक संगठन भी जनजायीत-हित के असली मुद्दों पर सुसंगत मांग पत्र द्वारा निश्चित कार्रवाई का जन-दबाव बनाने में अयोग्य और अक्षम रहे हैं।

जनजाति सलाहकार परिषद की अध्यक्षता गैर-राजनीतिक व्यक्ति करे यह बयान देकर महामहिम राज्यपाल ने जनजाति समाज की वाहवाही बटोरने की कोशिश की है। पांचवीं अनुसूची में राज्यपाल की भूमिका को लेकर अविभाजित मध्य प्रदेश के समय से जो दुष्प्रचार किया जाता रहा है उसे महामहिम श्रीमती अनुसूईया उईके के कार्यकाल के प्रारंभ होते ही नए आयाम देने का काम प्रारंभ हुआ है। इससे गैर-ज़रूरी कांग्रेस बनाम भाजपा संघर्ष होकर रहेगा। जनजातीय हित-साधन को अनावश्यक और टुच्ची पार्टीगत राजनीति से बचाने के लिए छत्तीसगढ आदिवासी छात्र संगठन द्वारा विधिक स्पष्टता प्रदान की जा रही है।

उच्चतम न्यायालय की पांच, सात, नौ और ग्यारह सदस्यीय संविधान पीठों ने क्रमश: रामजवाया कपूर, समशेर सिंह, बोम्मई और कावसजी कूपर मुकद्दमों में स्पष्ट किया है कि राज्यपाल सामान्यत: हमेशा अपने मंत्रि-परिषद की सलाह पर ही कार्य करेंगे, सिवाय उन कॄत्यों के जिनके विषय में संविधान में ही विवेकाधिकार का ज़िक्र है या फ़िर वह ऎसे कृत्य हैं जिन पर मंत्रि-परिषद की सलाह व्यावहारिक तौर पर संभव ही नहीं है। ध्यान रहे कि राज्यपाल को राजनैतिक/सैद्धांतिक मुद्दों पर राज्य की मंत्रि-परिषद को सुझाव देने का कोई अधिकार नहीं है। आपातकाल एवं राष्ट्रपति शासन के अतिरिक्त किसी अन्य समय राज्यपाल केंद्र सरकार को भी स्वतंत्र रूप से कोई सुझाव नहीं दे सकते, और न ही वे उसके एजेंट के रूप में कार्य करेंगे (हरगोविंद पंत बनाम रघुकुल तिलक- संविधान पीठ)। दुर्भाग्य से आज तक उच्चतम न्यायालय की किसी संविधान पीठ ने पांचवीं अनुसूची के उद्देश्य, इसकी कार्यप्रणाली और शेष संविधान के प्रावधानों से इसके अंतर्संबंधों पर कोई समग्र फ़ैसला नहीं दिया है। वैसे पांचवीं अनुसूची में राज्यपाल को मात्र चार ज़िम्मेदारियां दी गई हैं- राष्ट्रपति को अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में वार्षिक/विशेष रपट भेजना, जनजाति सलाहकार परिषद के नियम/एजेंडा बनाना, अधिसूचना/विनियम द्वारा विशिष्ट-एकल विधायिका का कार्य करना और अनुसूचित क्षेत्रों की सीमाओं में परिवर्तन करने के लिए राष्ट्रपति की मांग पर सलाह देना। ध्यान रहे कि अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में राज्यपाल की रपट के आधार पर ही केंद्र सरकार द्वारा उस मामले पर निर्देश देने की संभावना बनेगी। संविधान में अलग से ज.स.प. प्रावधानित करने का उद्देश्य यह है कि विधायी और कार्यपालिक प्रक्रियाओं और अन्य विषयों पर अलग से, जनजाति-हित के खास नज़रिए से, पुनर्विचार करने के लिए एक संवैधानिक संस्थान उपलब्ध हो जिसकी सलाह को शासन समुचित गंभीरता से ले। का किसी भी मंत्री अथवा नौकरशाह की ज.स.प. में सदस्य अथवा पदेन उपस्थिति ज.स.प. के मूल उद्देश्य को ही खारिज कर देती है। इसलिए पहले दो काम ऎसे हैं जो राज्य की मंत्रि-परिषद् की सलाह पर करना व्यावहारिक नहीं है अत: इन्हें राज्यपाल को स्व-विवेक के आधार पर करना चाहिए। शेष दोनों कार्य राज्य की मंत्रि-परिषद् की सलाह के बगैर या उसके विपरीत करना लोकतांत्रिक मूल्य के विरुद्ध होगा।

राज्यपाल के जनजाति हित को लेकर जारी हो रहे बयानों से पदीय सीमाओं का लगातार उल्लंघन हो रहा है और इससे आदिवासी अधिकारों के नाम पर जारी दुष्प्रचार को भी बल मिलता है। यदि राज्यपाल जनजाति हित को लेकर गंभीर हैं तो उन्हें तत्काल छ.ग. जनजाति सलाहकार परिषद् नियम 2006 में आदिवासी छात्र संगठन द्वारा सुझाए गए व्यापक संशोधन [नियमों 13, 17के निरसन एवं नियमों 3, 4, 8, 12(1), 12(4) के पूर्णत: अंत:स्थापन द्वारा समुचित संशोधन] कर के नए नियम अपने विवेकानुसार बनाने चाहिए। तब यदि विवाद हुआ भी तो वह गरिमापूर्ण और संवैधानिक विवाद होगा।

 (योगेश ठाकुर),

अध्यक्ष- छत्तीसगढ आदिवासी छात्र संगठन,

 

 

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