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मुस्लिम होने की सजा आखिर कब तक। ..?

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क्या इस मुल्क में मुसलमान होना गुनाह है..?

"दिल्ली से आलोक मोहन की रिपोर्ट"

जिस समय हिंदुस्तान के सबसे बड़े मदरसे,देवबन्द में भारत सरकार के सेना के कुछ बड़े अधिकारी वंहा के मौलवियों मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों से सेना में भर्ती होने की बात कर रहे थे, ठीक उसी समय झारखंड के सरायकेला इलाके में तबरेज अंसारी नाम के एक मुस्लिम युवक को जय श्री राम व जय हनुमान कहने के लिए मजबूर करके उसकी पिटाई कर रहे थे। जिसके बाद में तथाकथित कट्टर हिंदू वादियों के पिटाई से उस शख्स की मौत हो गई। यह पहला ऐसा मामला नहीं है की मॉब लिंचिंग की वजह से किसी पहले मुसलमान की हत्या की गई हो, गत 5 वर्षों में इस तरह की तमाम ऐसी घटनाएं हुई है जिसमें दर्जनों बेगुनाह मुसलमानों को जय श्री राम के नाम पर तो कभी गाय के नाम के सवाल पर तो कभी-कभी कहीं- कहीं टोपी और दाढ़ी के नाम पर उनको प्रताड़ित किया जाता रहा है यह सिलसिला अनवरत जारी है. एक तरफ भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब चुनाव जीतकर आते हैं तो अपने नवनिर्वाचित सांसदों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि अब हमें सबका विकास सबका साथ और सब का विश्वास जीतना है उनके इस कथन से लगता है कि वास्तव में वह मुसलमानों के लिए जाति व धर्म से ऊपर उठकर कुछ करना चाहते हैं भाजपा में मुसलमानों के प्रति यह बदलाव अपने आप में में साफ दर्शाता है कि भारतीय जनता पार्टी एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को इस बात का एहसास हो गया है की अगर इस "मुल्क" हिंदुस्तान को दुनिया के महत्वपूर्ण देशों की पहली पंक्ति पर लाना है तो हिंदुस्तान की तकरीबन 22 करोड़ आबादी को अनदेखा नहीं किया जा सकता है. अपने दूसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी ने जिस तरह मुसलमानों के उत्थान, पढ़ाई - लिखाई व स्कॉलरशिप आदि देने का ऐलान किया है उससे मुसलमानों में भी भाजपा के बदले रवैया से ताज्जुब हो रहा है. तमाम जाने-माने मुसलमानों को व मदरसों की मुखियाओं को लगता है कि बदले सियासी माहौल में अब मुसलमानों को टोपी और दाढ़ी की नजर से नहीं देखा जाएगा, लेकिन जिस तरह के भाजपा कुछ लंपट कट्टर हिंदुत्ववादी लोगों द्वारा विभिन्न प्रदेशों में मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा हैं उससे भाजपा व आर एस एस का कहीं न कहीं दोहरा चरित्र उजागर होता है पार्लियामेंट में जब जय श्रीराम के नारे लगते हैं वंदे मातरम अल्लाह हू अकबर का नारा लगता है तो देश की तस्वीर कुछ और ही नजर आती है कभी-कभी तो यह कहने में भी शर्म होती है कि क्या वास्तव में यह मुल्क सेकुलर मुल्क है अपने आप में यह विचारणीय सवाल है..? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश को आजादी दिलाने में हिंदुस्तान के तमाम उलेमाओं और तमाम मदरसों के लोगों ने भी देश की आजादी में अहम रोल अदा किया है वह चाहे देवबंद से ताल्लुक रखने वाले हो या बरेलवी समाज के लोग. हिंदुस्तान को आजाद कराने में मुल्क की तमाम मुस्लिम रहनुमाओं ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत को आजाद कराने में अहम भूमिका अदा की है चाहे वह अली बंधुओं या फिर तमाम ऐसे उलेमा जिनका आजादी में नाम नहीं दर्ज है लेकिन उन्होंने पर्दे के पीछे रहकर इस मुल्क की तरक्की में अहम रोल अदा किया है दुर्भाग्य की बात है कई दशकों में तमाम तथाकथित सेकुलर जमातो ने मुस्लिम वोटों को पाने के लिए मुस्लिम समाज के लोगों को डराया और धमका रखा है जिसका सिलसिला आज भी जारी है चाहे वह बाबरी मस्जिद का मामला हो या भागलपुर कांड का मामला हो या मलियाना कांड हो यह ऐसे कई दंगे फसाद पूरे देश में हुए हैं जहां निशाने पर हमेशा मुसलमान ही रहा है.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए की यह वही मुलायम सिंह यादव हैं जिन्होंने बाबरी मस्जिद को बचाने के सवाल पर अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाई थी उस समय सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के सबसे बड़े लोकप्रिय नेताओं में रहे हैं लेकिन जब मौका मिला उन्होंने अपनी सुविधा अनुसार बाबरी मस्जिद के कत्ल में भागीदार रहे तथा वर्तमान राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह एवं भाजपा सांसद साक्षी महाराज को गले लगाने में देर नहीं की स्पष्ट है कि जो लोग मुसलमानों का होने का सबसे बड़ा हितैषी होने का दावा करते हैं वास्तव में वे लोग अपनी सियासत के नफे और नुकसान के हिसाब से करते हैं। शायद यही वजह है की आजाद हिंदुस्तान में मुस्लिम समाज दलितों से भी गया गुजरा है इस बात का उल्लेख खच्चर कमेटी में साफ-साफ मिलता है जिसका गठन कांग्रेस ने किया था लेकिन कांग्रेस ने ही वोटों की राजनीति के चलते मुसलमानों को तमाम तरह के सब्जबाग को दिखाएं लेकिन व्यवहारिक स्तर पर कुछ काम नहीं किया और मुस्लिम समाज को तमाम मुद्दों में उलझा कर रखा चाहे वह दौर 1980 का हो या उसके बाद का हमें यह नहीं भूलना चाहिए की मुसलमानों में अब्दुल्ला बुखारी अपने आप को भी मुसलमानों का सबसे बड़ा रहनुमा समझने लगे थे इंदिरा गांधी से सौदे बाजी भी करते थे लेकिन कुछ मुस्लिम समाज को छोड़ दें तो कभी भी मुसलमान उनके छल कपट और बहकावे में नहीं आया साथ ही सैयद शहाबुद्दीन जैसे लोगों ने भी शाहबानो और बाबरी मस्जिद के नाम पर मुसलमानों को बहुत बहकाया, लेकिन मुसलमानों के कोई बड़े नेता नहीं बन पाए क्योंकि मुसलमानों ने हमेशा मुस्लिम लीडरशिप को अनदेखा किया शायद यही वजह रही है आजादी से लेकर अब तक मुसलमानों में अपना कोई बड़ा नेता नहीं है इसकी वजह यह है मुस्लिम समाज के लोगों ने हमेशा हिंदू लीडरशिप को ही अपना नेता और रहनुमा माना आश्चर्य की बात यह है कि रहनुमाओं ने मुस्लिम समाज के लोगों को वोट प्राप्त करने का ही केवल साधन समझा और उनके वास्तविक स्थिति पर कोई ध्यान नहीं दिया इतिहास इस बात का गवाह है कि मौलाना आजाद ने एवं सीमांत गांधी ने तथा अली बंधु व जैसे लोगों ने महात्मा गांधी को अपना नेता माना और उनके साथ चलकर देश की आजादी में अहम भूमिका अदा की इंदिरा गांधी को इस देश के मुसलमानों ने अपना नेता माना हेमवती नंदन बहुगुणा को मुस्लिम समाज ने सर आंखों पर बैठाए रखा इसी हद तक मुलायम सिंह को भी बाबरी मस्जिद सुरक्षा के नाम पर इस मुल्क के मुस्लिम समाज ने बढ़-चढ़कर साथ दिया एक समय यह था की बाबरी मस्जिद कत्ल के बाद जब मुलायम सिंह यादव मुंबई गए व जहां जहां से मुस्लिम बस्तियों से निकले थे मुस्लिम लोगों ने गुलाब के फूल की वर्षा की थीं। सवाल यह है इस धर्मनिरपेक्ष देश में क्या किसी बहुसंख्यक समाज ने कभी किसी मुस्लिम को अपना नेता स्वीकार किया है,जबकि मुसलमानों में भी कई कद्दावर लोग पूर्व में भी रहे हैं और आज भी है इनमे चाहे फारुख अब्दुल्ला हो गुलाब नबी आजाद तथा अहमद पटेल हो अथवा उवैसी या फिर आजम खान जैसे लोग, इन लोगों ने कथित सेकलूर वादी हिन्दू नेतृत्व के साथ काम किया है लेकिन किसी हिन्दू नेता ने व पार्टी ने कभी भी इनके नेतृत्व में काम नही किया अपने आप मे तमाम राजनीतिक दलों को इस बारे में सोचना चाहिए कि उन्हें अभी तक मुस्लिम लीडरशिप में काम करने से परहेज क्यों किया और उक्त लोगों को अपने पार्टी संगठनों पर विराजमान क्यों नहीं करवाया लेकिन वास्तविकता यह है कि व्यवहारिक धरातल पर मुस्लिम समाज को टिकट देने की बारी आती है तो उनके आड़े परिवारवाद आ जाता है इससे कांग्रेसी भी अछूती नहीं है तथा वे तमाम सेकुलर दल जो मुसलमानों के हित की बात तो करते हैं लेकिन व्यावहारिक स्तर पर उनके लिए कुछ करने के लिए मुंह चुराते हैं हमें यह नहीं भूलना चाहिए एक समय था जब भारत की पार्लियामेंट एवं विधानसभाओं में मुस्लिम सांसदों की संख्या सर्वाधिक हुआ करती थी लेकिन 80 के दशक के बाद यह संख्या धीरे-धीरे घटती गई। 2019 के लोकसभा चुनाव में मुस्लिम सांसदों की संख्या में कुछ बढ़ोतरी हुई है। सवाल सांसदों की संख्या पर नहीं है सवाल यह है कि मॉब लिंचिंग जैसी घटनाएं कब रुकेगी अगर ऐसा नहीं होता है तो क्या यह माना जाए की आज के दौर में इस मुल्क में क्या मुसलमान होना गुनाह है..? यह सवाल उन लोगों पर भी लागू होता है जो सबको साथ, सबका विकास, सबका विश्वास लेकर साथ चलने की बात कर रहे हैं.. या वह दल जो हमेशा मुसलमानों के हितैषी होने का दावा करते हैं.. लेकिन जब चुनाव आते हैं तो मस्जिदों के बजाय मंदिरों में मत्था टेकने पर पीछे नहीं रहते हैं और तुर्रा यह कि वह सबसे बड़े सेकुलर हैं,तथा इस बात का आकलन भी किया जाना चाहिए की आ

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