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ऐसे हुई पत्रकारिता की शुरूआत,बाबूजी के आदर्श 'देश'प्रेम के आजीवन 'बंधु' बन गए। ये कहानी है जाने-माने पत्रकार ललित सुरजन जी की: तृप्ति सोनी

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तृप्ति सोनी के फेसबुक वॉल से साभार

पिछले 59 सालों से इसी आदर्श पत्रकारिता की मशाल लिए एक पत्रकार नई पीढ़ी को दिशा दे रहे हैं। जी हां, ये उस पत्रकार की कहानी है जिन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के लिए अपने विज्ञान का मोह छोड़ा और बाबूजी के आदर्श 'देश'प्रेम के आजीवन 'बंधु' बन गए। ये कहानी है जाने-माने पत्रकार ललित सुरजन जी की

 

ऐसे हुई पत्रकारिता की शुरूआत

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बचपन से लेकर 20 साल की उम्र तक मध्यप्रदेश के अलग-अलग जगहों पर रहे। ललित सुरजन जी विज्ञान के विद्यार्थी थे, लेकिन परिवार की तरफ से बाबूजी के अखबार में हाथ बंटाने की बात कहने के बाद कला के विद्यार्थी हो गए। कला संकाय में MA किया, ललित जी बताते हैं कि उनके लिए बड़े गर्व की बात है कि रविशंकर विवि के MA संकाय के प्रथम बैच के वे विद्यार्थी रहे हैं और आज पत्रकारिता के सफर में 59 साल बीत जाने के बाद भी वे खुद को विद्यार्थी ही मानते हैं। ललित जी ने पढ़ाई करते-करते ही पत्रकारिता की ट्रेनिंग ली। बात 1961 की है उन दिनों स्व. मायाराम सुरजन जी नई दुनिया जबलपुर अखबार का संचालन कर रहे थे, इसी अखबार में 5 अप्रैल 1961 से ललित जी ने दो साल ट्रेनिंग ली, फिर जबलपुर समाचार में एक साल ट्रेनिंग ली। ललित जी ने तीन साल के ट्रेनिंग के दौरान अखबार के हर विभाग में काम सीखा। संपादकीय विभाग में हर तरह के समाचार लिखे, मशीन विभाग का काम सीखा, विज्ञापन और प्रसार विभाग में भी प्रशिक्षण लिया। बड़े ही उत्साह के साथ उन दिनों को याद करते हुए ललित जी बताते हैं कि आजकल तो मशीनें अखबार फोल्ड करती हैं लेकिन उन दिनों में वे बड़े ही मजे से अखबार की फोल्डिंग किया करते थे और अखबारों के बंडल बनाया करते थे। तीन साल की ट्रेनिंग के बाद वे रायपुर आ गए, रायपुर में नई दुनिया में काम करना शुरू किया। वे कहते हैं कि स्व. मायाराम सुरजन जी यानि बाबूजी पत्रकारिता में उनके आदर्श हैं, उन्होंने राजनारायण मिश्र जी से भी बहुत कुछ सीखा।

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'हमारी इज्जत हर दिन चवन्नी में बिकती है....'

 

किसी भी पत्रकार या अखबार के लिए ये सूत्रवाक्य स्व. मायाराम सुरजन जी ने ही दिया है। बाबूजी ने नागपुर के साथ-साथ जबलपुर, भोपाल, रायपुर, सतना में अखबार स्थापित किए। अपने पत्रकारिता जीवन में शुरूआत से ही अखबार से जुड़े रहे ललित सुरजन जी ने बाबूजी की ये बात आजीवन गांठ बांधकर रख ली कि हमारी इज्जत हर दिन चवन्नी में बिकती है, आशय ये है कि एक अखबार की कीमत उन दिनों 25 पैसे हुआ करती थी, रोज अखबार 25 पैसे में बिकता था, साथ में पत्रकार की प्रतिष्ठा भी जुड़ी रहती है, इसलिए बात इज्जत की, ताकि पत्रकार या अखबार की लेखनी पर कभी कोई सवाल न उठे। बाबूजी का स्मरण करते हुए ललित जी कहते है कि वे कहा करते थे कि हर पत्रकार को ये जानना जरूरी है कि हम अखबार जनता के लिए निकालते हैं, अगर पैसा कमाना होगा तो किराना दुकान खोलकर भी पैसा कमाया जा सकता है। 

 

पत्रकारिता की नर्सरी 'देशबंधू'

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जनहित के लिए, सरकार को जगाने के लिए काम करने की प्यास, आम लोगों की परेशानियों को हल करने की प्यास, पत्रकारिता के आदर्शों को स्थापित करने की ये जो प्यास है वो सदा अनबुझी ही रहेगी, ऐसा इसलिए क्योंकि देशबंधु एक ऐसा अखबार है जिसने पिछले 61 वर्षों में लोकहित से जुड़े मुद्दों को ही तरजीह दी है जो आज तक अनवरत जारी है। प्रयोगधर्मिता देशबंधु का गुण रहा है, देशबंधु ने बहुत से नए-नए प्रयोग किए है। ग्रामीण पत्रकारिता को स्थापित करने का श्रेय देशबंधु अखबार को ही जाता है। जिसका प्रमाण ये है कि देशबंधु अखबार के संवाददाताओं को 14 बार स्टैट्समैन अवार्ड फॉर एक्सीलेंस फॉर रूरल रिपोर्टिंग का पुरस्कार मिला है। देशबंधु के दिग्गज पत्रकार रहे राजनारायण मिश्रा, सतेंद्र गुमाश्ता, जियाऊल हुसैनी के साथ-साथ और भी बड़े चेहरों को स्टेट्समैन पुरस्कार से नवाजा गया है। 

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एक खबर जिसने प्रधानमंत्री को बुला लिया...

 

बात 1992 की है, देश के प्रधानमंत्री थे नरसिम्हा राव, अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे सुंदर लाल पटवा। उस वक्त एक खबर ने मानव जाति को झकझोर दिया, ऐसा इसलिए क्योंकि प्रदेश में भूख से मौत हुई। सरगुजा के बीजाकुरा गांव में आदिवासी रिबई पंडो के बहु और पोते की मौत इसलिए हो गई क्योंकि उनके पास कुछ खाने को नहीं था। रिबई पंडो के बहु और पोते की भूख से मौत की ये खबर 29 फरवरी 1992 को देशबंधु में छपने के बाद करीब ढाई महीने तक इस मुद्दे को लेकर भारी हंगामे की स्थिति बनी रही। तत्कालीन बीजेपी सरकार की बर्खास्तगी की अटकलों का बाजार भी गर्म हुआ। आखिरकार मई १९९२ के दूसरे सप्ताह में खुद प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को सरगुजा आना पड़ा। बीजाकुरा गाँव पहाड़ी पर है और प्रधानमंत्री का यान वहां नहीं उतर सकता था इसलिए पीएम राव ने पड़ोसी गाँव जनकपुर में इलाके के अकाल पीड़ित ग्रामीणों से चर्चा की और सभा को संबोधित भी किया। अपने भाषण में उन्होंने कहा था, आज मैं पूरे देश के लिए एक ऐसी खाद्य नीति की घोषणा कर रहा हूँ कि जिससे गोदामों से निकले हुए अनाज का गरीबों के पेट तक पहुँचना सुनिश्चित हो सकेगा। जब पीएम का भाषण खत्म हुआ तो बीजेपी वालों ने राहत की सांस ली क्योंकि उन्होंने सरकार की बर्खास्तगी का जिक्र नहीं किया। खैर, पत्रकारिता के लिहाज से ये बड़े गर्व की बात है कि देशबंधु में छपी भूख से मौत ये खबर अकालग्रस्त इलाके, भूख से तड़पते लोगों की आवाज बनकर उभरी और अंधी-बहरी व्यवस्था की पोल भी इस खबर ने खोली। ये भी जाहिर है कि उस वक्त सरकार में संवेदनशीलता का भी अपना महत्व हुआ करता था। 

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एक मुख्यमंत्री के गुस्से का शिकार हुआ देशबंधु!

 

बात 1978 की है, बैलाडीला क्षेत्र में कार्य कर रही अशोका माइनिंग कंपनी ने 31 मार्च 1978 तक का ठेका खत्म होने की वजह बताते हुए चार हजार मजदूरों को छंटनी का नोटिस थमा दिया। दो अन्य कंपनियों के हजारों मजदूरों के सामने भी यही संकट छा गया था। लगभग दस हजार मजदूर परिवारों को अपना भविष्य गर्त में डूबता नजर आ रहा था। छंटनी की भनक मिलते ही मजूदर संगठनों ने 10 मई 1978 से आंदोलन शुरू किया। शांतिपूर्ण ढंग से 29 मार्च तक भूख हड़ताल चली, जुलूस निकला। पुलिस ने लाठियां चलाई और आंसू गैस छोड़े। गुस्साए मजदूरों ने पथराव कर दिया। कामरेड इंद्रजीत सिंह को देखते ही गोली मार देने का आदेश प्रशासन ने दे दिया। अगली सुबह मजदूर नेता की खोज हुई । जवानों ने इंद्रजीत की तलाश में मजदूरों के झोपड़ी-बस्ती में आग लगा दी। बिना चेतवानी के ही गोलियां चलानी शुरू कर दी। पूरी निर्दयता और निर्ममता के साथ मजदूरों के पथराव का जवाब पुलिस गोलियों से देती रही और जब सब कुछ थमा तो 11 लोगों का मारा जाना बताया गया। इसमें एक पुलिस जवान कोमल सिंह सहित 10 मजदूर शामिल थे। हालांकि मरने वाले मजदूरों की संख्या इससे कहीं ज्यादा बताई जाती है। उस वक्त इस खबर को अकेले देशबंधु ने ही प्रमुखता से छापा, लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री विरेंद्र कुमार सखलेचा नहीं चाहते थे कि ये खबर छपे। सत्ता नाराज हुई और खामियाजा ये हुआ कि सरकार ने देशबंधु के भोपाल संस्करण को विज्ञापन देना बंद कर दिया। रायपुर का भी विज्ञापन आधा कर दिया गया, नतीजा ये हुआ कि भोपाल संस्करण बंद करना पड़ा। इस घटना से जाहिर है कि खबरों में तटस्थता देशबंधु का हमेशा से गुण रहा है

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सच में अफसर कितने बदमाश थे...

 

अफसरशाही और बेवकूफ जनता, 1972 में अबूझमाड़ के संदर्भ में ये कहना बिल्कुल ठीक होगा, ऐसा इसलिए क्योंकि प्रशासन ने अबूझमाड़ के आदिवासियों को साफ पेयजल देने की व्यवस्था का बड़ा तामझाम रचा, उस वक्त देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी खुद अबूझमाड़ पंहुची। मई 1972 में ओरछा पहुंची प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यूएस एड के तहत इंडो यूएस के एक प्रोजेक्ट का उद्घाटन किया जिसमें ये बताया गया कि आदिवासियों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने के लिए नलकूप बनाए गए हैं जिससे साफ पानी आदिवासियों को दिया जाएगा। देश की प्रधानमंत्री ने रिग मशीन का बटन दबाया और साफ पानी की बौछारें गिरने लगी, लोगों ने तालियां बजाई और बस्तर के विकास की नई ईबारत लिख दी गई। लेकिन ये झूठ था, दरअसल ये छल था आदिवासियों के साथ, और शायद देश की प्रधानमंत्री के साथ भी। ललित जी को कौतुहल हुआ कि पानी का स्त्रोत देखा जाए, उन्होंने ओरछा आते वक्त देखा था कि कार्यक्रम स्थल से थोड़ी ही दूर पर छोटे डोंगर की झील के पास पानी के बड़े-बड़े टैंकर खड़े थे, ललित जी ने नलकूप वाली जगह पर जाकर देखा तो वहां सिर्फ बड़े-बड़े गड्ढे कर दिए गए थे जिसमें झील का पानी भर दिया गया था। मतलब प्रधानमंत्री ने झील के भरे पानी का उद्घाटन किया। ये खबर प्रमुखता से देशबंधु में छपी जिसके बाद प्रशासन में हड़कंप मच गया। अफसरों की बदमाशी का एक किस्सा ये भी है कि इंदिरा जी आदिवासियों के लिए एक रेडियो ट्रांजिस्टर लेकर आईं थी, उन्होंने ग्राम पंचायत को रेडियो भेंट किया लेकिन इंदिरा जी के जाते ही वो रेडियो ट्रांजिस्टर पंचायत अधिकारी अपने घर लेकर चले गए। ललित जी कहते हैं इंदिरा जी देशबंधु को अच्छे से जानती थीं, बाद में पता नहीं अफसरों की बदमाशी पर कोई कार्रवाई हुई हो! क्योंकि प्रशासन की बदमाशी सत्ता की साख बचाने के लिए कभी-कभी छुप भी जाती है।

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जब संपादक को दिया खबर का डिक्टेशन

 

बात 1973 की है, देशबंधु के तमाम वरिष्ठ पत्रकार कोरबा गए हुए थे, मौका था फर्टिलाइजेशन कार्पोरेशन ऑफ इंडिया के कार्यक्रम का, संयंत्र का शिलान्यास करने आईं थी, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी। रामाश्रय उपाध्याय, रम्मू श्रीवास्तव, राजनारायण मिश्रा सभी कोरबा में थे, ललित जी भी थे। जैसे ही कार्यक्रम का शिलान्यास हुआ, इंदिरा जी का भाषण हुआ उसके बाद तुरंत ललित जी टेलीग्राफ ऑफिस के लिए दौड़े, तार लिखते-लिखते ही रायपुर फोन लगाया, सभी वरिष्ठ तो कोरबा में थे, रायपुर में थे बाबूजी यानि की स्व. मायाराम सुरजन जी,  ललित जी ने उनसे कहा कि बाबूजी खबर लिखिए, बाबूजी ने खबर लिखी। तो ये किस्सा याद करते हुए ललित जी बताते हैं कि उन्होंने अपने प्रधान संपादक को खबर का डिक्टेक्शन दिया।

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तो अकाल उत्सव समाप्त हो गया...

 

बात 1980 की है, अविभाजित मध्यप्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा था और अकाल की भी स्थिति थी। छत्तीसगढ़ के अकालग्रस्त 9 इलाकों का निरीक्षण करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी आईं। देशबंधु ने रिपोर्टिंग के लिए अपने अलग-अलग रिपोर्टर्स को 9 अलग-अलग जगहों पर भेजा। ललित जी खुद गए पलारी, जहां जर्वे में नहर का निरीक्षण करने के लिए इंदिरा जी पहुंची थीं, पीएम की गाड़ी के पीछे एंबुलेंस में ललित जी के एक डॉक्टर मित्र थे, उन्होंने ललित जी का परिचय डॉक्टर के रुप में करा दिया और ललित जी बैठ गए, पीएम के ठीक पीछे वाली गाड़ी यानि की एंबुलेंस में, इंदिरा जी के हर एक गतिविधि की रिपोर्टिंग करने के लिए उन्हें आसानी भी हुई। इंदिरा जी कार से उतरीं और नहर के किनारे-किनारे चलना शुरू किया, तब पीछे ललित जी और उनके दोस्त डॉक्टर भी दौड़े, तो पीछे पलटकर इंदिरा जी ने कहा, देखो भईया आराम से, कहीं गिर मत जाना। इंदिरा जी की संवेदनशीलता और चौकन्ना रहना, ये ललित जी आज भी याद करते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री की संवेदनशीलता से शायद शासन-प्रशासन का कोई लेना-देना नहीं था, इसलिए तो जहां-जहां इंदिरा जी ने अकाल राहत के लिए कुछ कामों का श्रीगणेश किया, इंदिरा जी के जाते ही प्रशासन ने उसकी इतिश्री कर दी। इंदिरा जी जहां-जहां गई थी, उन जगहों पर एक हफ्ते बाद देशबंधु के अलग-अलग रिपोर्टर्स को फिर से भेजा गया और रियलिटी चेक किया गया कि आखिर राहत कार्यों का हुआ क्या। सतेंद्र गुमाश्ता जी का जिक्र करते हुए ललित जी बताते हैं कि गुमाश्ता जी एक रिपोर्ट लेकर आए, वे गए थे महासमुंद, जहां एक हफ्ते पहले पीएम ने तालाब के गहरीकरण के काम का शिलान्यास किया था, पत्थर पर सिंदूर लगा हुआ था, माला और नारियल जस के तस पड़े हुए थे, ऐसा लगा कि अकाल उत्सव समाप्त हो गया। जिसके बाद देशबंधु ने एक हफ्ते सीरिज चलाी कि कैसे अकाल उत्सव समाप्त हो गया। पांच किश्तों में खबरें छपी और प्रशासन में हड़कंप मच गया। उस समय आर के त्रिवेदी जी राज्यपाल के सलाहकार थे, उन्हें देशबंधु को देख लेने की बात कही, कार्रवाई करने की बात कही लेकिन ये सिर्फ बात ही निकली, कार्रवाई तो असल में प्रशासन की लापरवाही पर जरूर हुई।

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साहब आप पत्रकार से बात कर रहे हैं...

 

बात 1983-84 की है, उन दिनों शंकर गुहा नियोगा की मजदूर आंदोलन चरम पर था, मजदूर आंदोलन की खबरें अखबारों की सुर्खियां रहा करती थीं, नियोगी को गिरफ्तार कर लिया गया था लेकिन ये पता नहीं चल पा रहा था कि उन्हें रखा कहां गया है। उस समय दुर्ग कलेक्टर थे स्वरुप सिंह पोर्ते, ललित जी ने उन्हें फोन लगाया और कहा, नमस्कार पोर्ते जी, नियोगी को गिरफ्तार करके भोपाल भेज दिया है क्या? उधर से पोर्ते जी का जवाब आया, नहीं-नहीं उन्हें तो सागर भेजा है। अब ललित जी ने पोर्ते जी से कहा कि अखबार के सूत्र होते हैं हमने पता कर लिया आप तो कभी भी मना कर सकते हैं। फिर दूसरे दिन देशबंधु ने छोटी सी खबर छापी की शंकर गुहा नियोगी को सागर में रखा गया है। इस प्रसंग से ये मालूम पड़ता है कि  पत्रकारिता में स्कूप के लिए सकारात्मक चपलता सही समय पर कितनी जरुरी होती है। ऐसे कई स्कूप ललित जी ने निकाले हैं।

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गुमनाम है आज आदर्श पत्रकारिता!

 

ललित जी कहते हैं कि अखबार जनता और सरकार के बीच में सेतु है, जनता की जो मंशा है, वो क्या चाहती है उसे सरकार तक पंहुचाना हमारी जिम्मेदारी है, लेकिन वे आजकल की रिपोर्टिंग से बिल्कुल खुश नहीं है। उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि आज अखबारों में हेडिंग होती है '300 करोड़ के विकास कार्यों की सौगात', हमें राशि नहीं काम बताने है कि क्या काम जनता के लिए किए जा रहे हैं और क्या निर्धारित समय तक पूरे हुए। लेकिन आज फॉलोअप की परंपरा रह कहां गई है। उनका कहना है कि पत्रकारिता में जनसरोकार होना चाहिए, अगर हमारे हाथ में कलम है तो वो जनता के लिए काम आए।

 

पत्रकारिता में ललित जी का एक ही ध्येय रहा, वे हमेशा नवाचार और प्रयोगधर्मिता का अनुसरण करते रहे और अपने साथियों को हमेशा एक ही बात कहीं कि, जाइए गांव-गांव में जाकर रिपोर्टिंग करिए। इसी की बानगी है कि सुरजन द्वय के नेतृत्व में दिग्गज पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी आज हमारे सामने हैं, रायपुर के पुरानी बस्ती इलाके में पंकज गार्डन, देशबंधु के पत्रकार पंकज शर्मा के नाम पर है साथ ही बड़े गर्व की बात है कि छत्तीसगढ़ में देशबंधु में काम किए पत्रकारों की राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान हुई है।

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