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मानसिक अवसाद से ग्रस्त हमारे सैनिक युद्ध से कहीं ज्यादा खुद ही मौत को गले लगा रहे हैं या एक दूसरे का जान ले रहे हैं...आखिर क्यों..?

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मानसिक अवसाद के शिकार देश के ये रखवाले आखिर क्यों बन गए हैं एक-दूजे के जान के लाले...?

क्या वजह है कि एक सैनिक जो देश के दुश्मनों से रक्षा की कसम लेकर परेड में शामिल तो होता है लेकिन अवसाद से ग्रसित अपने ही साथी-अधिकारी को निशाना बनाकर या तो मार रहे हैं या मर रहे हैं ?

 

 

आपको ज्ञात होगा जब पहली बार सेना के एक जवान तेजबहादुर यादव; जिन्होंने सोशल मीडिया के जरिए सीमा पर तैनात हर वो एक सैनिक की आवाज को बुलंद किया था जो अपने परिवार के जीविकोपार्जन और बेरोजगारी की समस्या से छुटकारा पाने की खातिर देश सेवा के जज्बे से ओत-प्रोत होकर एक सैनिक का फर्ज निभा रहा है।

तेज बहादुर ने सोशल मीडिया में एक वीडियो वायरल कर पुरे देश में सैनिकों के साथ हो रहे भेदभाव और उनके मानसिक दबाव की जो तस्वीर पेश किया था उससे समूचे सुरक्षा व्यवस्था को लेकर सवालिया निशान खड़ा हो गया है।

यह कोई नई बात नहीं। छत्तीसगढ़ प्रदेश में भी नक्सल उन्मूलन को लेकर गाहे-बगाहे अनेक मामले प्रकाश में आते रहे हैं।

एक पुख्ता जानकारी के मुताबिक - सीआरपीएफ 206 BN जो वर्ष 2014 मे चिँतगुफा सुकमा मे तैनात एक कोबरा कमांडो (सूजोय मंडल) भी प्रशासनिक और राजनीतिक दुष्चक्र के शिकार हैं।

एक मुलाकात के दौरान वार्तालाप में सुजॉय मण्डल ने बताया कि "तब लोकसभा चुनाव की ड्यूटी के दौरान हम चुनाव पार्टी कौ छोड़ कर वापस आ रहॆ थे तभी नक्सलियों की घात लगाकर बैठे दल ने हम पर हमला बोल दिया मैने अपने सीओ रमेश कुमार सिंह को जिस रास्ते से हम गये थे उससे वापस आने को मना किया था यह कोबरा के नियम व अभिमान शामिल नही है वह माना नहीँ दूसरा अप्रशिक्षित जवानो की टीम जिन्हे कोबरा की बेसिक ट्रेनिंग नहीँ मिली थी, उसमे से कूछ जवान बीमार भी थे उन्ही साथ ले जाने को मना भी किया था उसने तू सिपाही है मुझे मत सीखा बोलकर अपनी मर्जी का किया परिणाम दुखद आया हमारे 3 साथी मौके पर ही शहीद हो गए जबकि पाँच लोग घायल हुये थे, जिनमे से एक मै भी था मेरी टीम से शहीद होने वाला कमांडो चंद्रकांत घोष मेरा मौसेरा भाई था जिसकी शहादत ने मुझे तोड़ दिया।

मैने केम्प मे जाना की मेरा डी.सी रेंकिंग का अधिकारी कितना जल्लाद हो सकता है मेरे विद्रोह करने के बाद मुझे अमानवीय यातना गई मेरा इलाज भी ढंग से नही होने दिया गया 2 साल की गहरी तकलीफ के बाद मेरे सच बोलने की कीमत मुझे पहले निलम्बित किया गया है, अकारण मुझे सीआरपीएफ़ 206 से बाहर कर दिया गया, मै सिस्टम से आज भी लड़ रहा हूँ।

जहाँ तंत्र पूरी तरह से सड़ चूका है जहाँ सिर्फ आताताई अधिकारियो की ही चलती है और हम जैसे सैनिक जो देश और देशवासियों की सुरक्षा में चौबीसों घंटे अपने परिजन से दूर होकर भी निष्कपट होकर सेवारत रहते हैं, ये उच्चपदस्थ अधिकारीयों और नेताओं के चलते हमें मानसिक त्रासदी को भी बर्दास्त करना पड़ता है।" कुछ इसी तरह पीयूष पंकज के साथ भी और जम्मू-कश्मीर में तैनात सिपाहियों के साथ भी गुजर रहा है।

यही कारण है कि ड्यूटी पर तैनात हर एक जवान अवसाद से ग्रसित होता जा रहा है।

छत्तीसगढ़ प्रदेश में नक्सल उन्मूलन के नाम पर बस्तर में हर दसवे नागरिक के पीछे तैनात हर उस सिपाही की भी यही दास्तान है। अगर पन्नों को पलटकर देखा जाय तो बस्तर के बीहड़ों में स्थित कैम्पों में जवानों की हालत खराब है। दबावपूर्ण कार्य करने को वो मजबूर हैं।

उनमें गुस्सा इतना है कि आम लोगों पर उतरता है या अपने और अपने साथियों के ऊपर। उनके मानसिक हालात के बारे में सरकार कभी बात करना नहीं चाहती। बस्तर में जवानों के दुश्मन सिर्फ नक्सली ही नहीं अवसाद भी है।

प्राप्त जानकारी के अनुसार बस्तर संभाग के बीजापुर जिले में 9 दिसम्बर की शाम सीआरपीएफ के जवान संतकुमार ने किसी बात (सम्भवतः प्रेमप्रसंग) को लेकर साथी जवानों पर अंधाधुंध फायरिंग कर दी, जिसमें 4 जवानों की घटनास्थल पर ही मौत हो गयी, जबकि एक अन्य जवान गंभीर रूप से घायल हो गया है।
बस्तर डीआईजी पी सुंदरराज ने वारदात की पुष्टि करते हुए बताया कि यह घटना बीजापुर जिले के बासागुड़ा कैम्प में घटित हुयी है। सीआरपीएफ 168वीं बटालियन के आरक्षक संतराम ने अपने साथियों पर ताबड़तोड़ फायरिंग कर दी। इस बात की बारीकी एवं तत्परता से पड़ताल की जा रही है कि उसने उक्त हत्याएं क्यों की। छत्तीसगढ़ प्रदेश में यह कोई पहली घटना नहीं है, इससे पहले दिसम्बर 2012 में दंतेवाड़ा जिले में ऐसे ही जवान ने 5 जवानों को अंधाधुंध गोली चलाकर मौत के घाट उतार दिया था। इस घटना में एक जवान घायल भी हुआ था।

जनवरी, 2017 में ही झगड़े को लेकर उत्तर बस्तर कांकेर में शस्त्र बल के जवान ने अपने प्लाटून कमांडर को गोली मार के मौत के घाट उतार दिया था।

ऐसी दर्जनों घटनाएं बस्तर के जंगलों में जवानों के साथ घटित होती हैं। जवान पूरी तरह से मानसिक तनाव से गुजरते हैं। कभी छुट्टी न मिलने की वजह से से तो कभी आपसी टकराहट की वजह से।

अब तक 115 सुरक्षाकर्मियों ने की है आत्महत्या

पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2007 से अब तक कुल 115 सुरक्षाकर्मियों ने आत्महत्या की है।

इन दस सालों में 2017 में सबसे ज़्यादा 36 जवानों ने आत्महत्या कर ली। सुसाइड नोट में दर्ज कारणों पर सूत्रों का कहना है कि सुरक्षाकर्मियों की आत्महत्या के प्रमुख कारणों में कठोर परिस्थितियों में काम, अवसाद, छुट्टी प्राप्त करने में कठिनाई और एक मामले में भाई का विवाह और होम सिकनेस है।

व्यक्तिगत/परिवार (50%), बीमारी संबंधी (11%), कार्य से संबंधित (8%), अनजान/जांच के तहत (18%) और अन्य (13%) के रूप में आत्महत्या के कारणों को वर्गीकृत किया गया है।

संयोग से कुल 115 आत्महत्याओं में से 67 माओवादी हिंसा से प्रभावित इलाके में थे।

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