जिसको इक दीपक जलाना आ गया..
मुझको अपना ग़म भुलाना आ गया
हार कर भी मुसकराना आ गया
वो अंधेरे से भला क्यों कर डरे
जिसको इक दीपक जलाना आ गया
क्यों तकूँ मैं राह दुनिया की मुझे
बोझ अपना ख़ुद उठाना आ गया
मेरे सारे दर्द छू मंतर हुए
दर्द को जब गुनगुनाना आ गया
मैं भी हूँ धनवान मेरे पास अब
प्यार का अदभुत ख़ज़ाना आ गया
सच कहूँ के वो धनी है दोस्तो
जिसको अपना धन लुटाना आ गया
खून के रिश्तों में नफ़रत घुल गई
हाय अब कैसा ज़माना आ गया
गिरीश पंकज [रायपुर] वरिष्ठ साहित्यकार