कि मैं अकेला लड़ रहा हूँ
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मैं तरल
शब्द बन कर
उतरना चाहता हूँ
तुम्हारे अन्तस् में
उन शिलाओं
पर अपने
अर्थ उकेरने के लिए
जो सदियों से
निश्चेष्ट पड़ी हुई हैं
श्वास रोके हुए
अपने वक्ष पर
हरहराते जल प्रपात के
आघात झेल रही हैं
विकल हैं कि काश ,
कोई आकृति मिल जाए !
वहीं
मेरे एकान्त में
तुम्हारा साक्षात्कार होगा
मेरे मौन से
क्योंकि
मेरे शब्द अपने अर्थ
उकेर कर
जा चुके होंगे
अनन्त यात्रा पर
समय कम है,
कुछ तुम भी तो करो
कि मेरी कविता
चरितार्थ हो
कि मैं अकेला लड़ रहा हूँ ।
-निर्विकल्प