तुम्हारे तौलिये में काजल पोंछकर,
ड्रेसिंग के शीशे में बिंदी चिपकाकर
हर जगह बड़ी आसानी से..
कब्ज़ा जमाऊंगी ज़रूर..!!
जो बैठी है मेरे इंतज़ार में
तुम्हारी छत पर ही....
अरसे से प्यासी उस धूप में
अपनी गीली जुल्फें सुखाउंगी ज़रूर!!
माना तुम शराबी नही,
पर हर शाम तुम्हें,
खुद की याद दिलाकर
अपनी तलब जगाऊंगी ज़रूर!
सांझ-सवेरे /भरी दोपहर
फ़ीकी-फ़ीकी सी चाय में
अपनी उँगलियों से ,
मिठास घोल जाऊँगी ज़रूर..!
जो सोचोगे ज़रा भी
तुम भूलने का मुझे..
तो हिचकी बनकर,
अपनी याद, दिलाऊंगी ज़रूर..!
सुनो..मैं जब भी मिलूँगी तुम्हें
गले लगाऊंगी ज़रूर
थोड़ा सा नही...
पूरा हक़ जताउंगी ज़रूर।
-एकता सिरीकर