शहर के दर
पर..,
इक औरत
का पसीना
मोती बन
चमकता है
गर,ग़ौर से
देखो तो
हँसता हुआ
गुलाब सा
लगता है
ग़ुरबत है
पर,हसीन
ख़्वाब सा
है इक सुकून
सा है कुछ
सुमन सा है
हाड़तोड़ से
दो चार हुई
है पर काँटों
भरी राह की
वह गुलाब की
पंखुड़ी सी है
न बनी है
न सजी है
पसीने से
लथपथ हुई
है के,शहर
के दर पर
इक औरत
खड़ी है
शहर का
तब्दील होना
इनके माथे
की रौनक़ है
इस शहर की
फ़िज़ा तो
इस पसीने
की बूँद की
पाबंद है..,
[नितिन राजीव सिन्हा]