ठूँठ..,
क्यों ख़ामोश
हुए हैं शजर
यहाँ पत्तियों
की तलाश है
या ठूँठ को
देखकर उदास
हुआ बचपन है
न परिंदे लौटते
हैं न छाया मिलती
है क्या यही दुनिया
मिली है आज की
पीढ़ी को..,घर
आँगन सुने हुए
हैं घर अब मशीन
हुए हैं देखता हूँ
जिधर उधर
हवा भी उधार
हुई है पंखों,एसी
का जुगाड़
ज़िंदगी हुई है
क्या पेड़ की
शीतल वेग
सा सुकून दे
पायेंगे ये
मशीनें फ़रिश्ते..?
खोजता हूँ
पेड़ तो मेरे
शहर में ठूँठ
मिलते हैं
काँक्रीट के
जंगल में
फूल काग़ज़
के खिलते है..,
कैसे कहूँ
ठूँठ इन्हें
मेरा बचपन
तो इसी के
इर्द गिर्द
रचा बसा है
इंसा मशीनों
से घिरकर
पिंजरे में
क़ैद हुआ है..,
धूप में जलते
जिस्म की
बात क्या
कहूँ मैं उजड़ते
हुए गाँव सूखते
हुए कुओं गुम
होते तालाबों
संग मिटती
मिट्टी की कहानी
लिख रहा हूँ
इक ठूँठ की
निगरानी कर
रहा हूँ..,
[नितिन राजीव सिन्हा]