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एक चाल का तानाशाह (आलेख : राजेंद्र शर्मा)

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पांचवे चरण में 49 सीटों के लिए मतदान के साथ, 2024 के चुनाव का नतीजा एक तरह से तय होकर, ईवीएम मशीनों में बंद हो चुका है। बचे हुए दो चरणों में जिन 125 सीटों पर वोट पड़ने हैं, उनकी संख्या और मिजाज, दोनों ऐसे नहीं हैं कि, चुनाव अचानक पलटा खा जाए। अब 428 सीटों के लिए मतदान के साथ ईवीएम मशीनों में बंद यह नतीजा क्या है, इसका ठीक-ठीक पता तो 4 जून को मतगणना से ही चलेगा। फिर भी इतना तय है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में संघ-भाजपा की बदहवासी साफ-साफ दिखाई दे रही है। इस बदहवासी के दूसरे अनेक लक्षणों के अलावा, एक और नया लक्षण जो व्यापक रूप से राजनीतिक तथा विशेष रूप से मीडिया प्रेक्षकों ने दर्ज किया है, चुनाव की तारीखों की घोषणा के बाद से प्रधानमंत्री मोदी का, भांति-भांति के मीडिया संस्थानों को पांचवे चरण के मतदान के दिन तक 42 साक्षात्कार दे चुका होना है।

यह दूसरी बात है कि मीडिया से आमने-सामने होने में सौ फीसद अनुकूलता और नियंत्रण हासिल करने की हवस में, मोदी के प्रचार प्रबंधकों ने इन्हें साक्षात्कार के नाम पर मजाक ही बनाकर रख दिया है। अब तक आई जानकारियों के अनुसार, इन सभी आयोजनों में अगर साक्षात्कार के नाम पर कुछ है, तो यही कि संबंधित मीडिया संस्थानों के सावधानी से चुने गए साक्षात्कारकर्ताओं को, इस बहाने से प्रधानमंत्री मोदी से दस-पंद्रह मिनट की आमने-सामने की मुलाकात और मामूली गप-शप करने का भी मौका दिया जाता है, जिसकी तस्वीरों का बाद में उपयोग भी किया जा सकता है ; वर्ना साक्षात्कारकर्ताओंं के चयन से लेकर, प्रश्नों के सूत्रीकरण और जवाबों की रिकार्डिंग/ लेखन और अंतत: संपादन तक, सब कुछ प्रधानमंत्री कार्यालय खुद करता है और तैयार कॉपी प्रसारण/ प्रकाशन के लिए, मीडिया संस्थान को उपलब्ध करा दी जाती है। हैरानी की बात नहीं है कि सोशल मीडिया में इस पर व्यंग्यात्मक चर्चा ही चल पड़ी है कि साक्षात्कार की इस प्रजाति को किस नाम से पुकारा जाना चाहिए।

और भी गहरी विडंबना यह कि इन्हीं छद्म साक्षात्कारों में से एक में, प्रधानमंत्री मोदी ने एक सवाल के अपने जवाब में अपने कार्यकाल के दस साल में, एक भी खुली प्रेस कान्फ्रेंस नहीं करने की सफाई देने की सरासर बेईमान कोशिश भी की है। मोदी ने अपने खुली प्रेस कान्फ्रेंस न करने के लिए, प्रेस को ही दोषी ठहराने का रास्ता चुना है। उन्होंने इसकी शिकायत की है कि अब प्रेस, पहले की तरह तटस्थ या वस्तुनिष्ठ नहीं रह गई है ; पत्रकार अपनी राय से, अपने विचारों से संचालित होते हैं। जाहिर है कि इसीलिए, उन्होंने कोई प्रेस कान्फ्रेंस नहीं की। मोदी के स्वतंत्र प्रेस से भागने की इस झूठी बहानेबाजी की विडंबना सिर्फ इतनी ही नहीं है कि इसमें उन्होंने सारे के सारे प्रेस पर ही पक्षपाती और पूर्वाग्रही होने की तोहमत लगा दी है। इस तर्क का विस्तार करें, तो नरेंद्र मोदी ने पक्षपाती तथा पूर्वाग्रही का यह ठप्पा सिर्फ भारतीय प्रेस पर ही नहीं लगाया है, बल्कि दुनिया भर के प्रेस पर लगाया है। आखिरकार, यह तो किसी से छुपा हुआ नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी देश में ही नहीं, विदेशी धरती पर और विदेशी पत्रकारों से रूबरू होने से भी,सायास बचते आए हैं। मोदी की स्वतंत्र प्रेस नीति तो इस हद तक जाती है कि जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान, अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ आए पत्रकारों को मोदी राज के आदेश पर घंटों तक उनके वाहन में ही बंधक बनाकर बैठाए रखा गया था, ताकि इस सम्मेलन के हाशिए पर हुई मोदी-बाइडेन मुलाकात के बाद, मोदी को पत्रकारों के सवालों का सामना नहीं करना पड़े। भारत को दुनिया भर में हँसी का पात्र बनाने वाले इस प्रसंग के आखिर में, बाइडेन को वियतनाम पहुंचकर ही अमरीकी व अन्य पत्रकारों को संबोधित करना पड़ा था।

इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि मीडिया/ प्रेस में वस्तुगतता और निष्पक्षता के न रह जाने की शिकायत वही प्रधानमंत्री कर रहे थे, जिसके दस साल के राज में मीडिया की मुख्यधारा को पालतू बनाने और स्वतंत्र मीडिया को कुचलने में जितनी ऊर्जा लगाई गई है, उतनी ऊर्जा तो शायद अपने राजनीतिक विरोधियों को बर्बाद करने पर भी नहीं लगाई गई होगी। विडंबना के साथ, मजाक का छौंक यह कि प्रेस की स्वतंत्रता के ह्रास की शिकायत भी छद्म साक्षात्कारों की ऐसी शृंखला के दौरान की जा रही थी, जिसे चुनाव के संदर्भ में पहले कभी पेड न्यूज के रूप में आदर्श चुनाव संहिता का उल्लंघन ही माना गया होता।

इसी क्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने, एक और बेढब दलील यह दी कि अब मैं संसद में हूं, वहीं जवाब दिया जाता है। लेकिन, यह दलील भी मीडिया के तटस्थ न रह जाने जितनी ही झूठी है। पहली बात तो यह कि मोदी कोई पहले प्रधानमंत्री तो हैं नहीं, जो संसद में हों और जिनकी संसद के प्रति जवाबदेही बनती हो। हरेक प्रधानमंत्री को, संसद के किसी न किसी सदन का सदस्य होना ही होता है। फिर भी, मोदी देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने दस साल में एक भी खुली प्रेस कान्फ्रेंस का सामना नहीं किया है। दूसरी बात यह है कि संसद में सवालों के जवाब देने का प्रधानमंत्री मोदी का रिकार्ड, पत्रकारों के सवालों का सामना करने के उनके रिकार्ड जितना ही खराब है। सच्चाई यह है कि प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दस साल में नरेंद्र मोदी ने संसद में भी एक भी सवाल का जवाब नहीं दिया है। प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने संसद में, खास-खास सत्रों में, खास-खास बहसों के जवाब के नाम पर, अपने मन की बात भर की है, वर्ना उनका रिकार्ड संसद से ज्यादातर समय गायब रहने का और उसकी चर्चाओं में हिस्सा लेने से बचने का ही रहा है।

स्वतंत्र प्रेस के जरिए और जाहिर है कि संसद के जरिए भी, जनता के सामने जवाबदेही से ही प्रधानमंत्री मोदी के इस तरह भागने की असली वजह, उनका तानाशाहाना मिजाज है। नरेंद्र मोदी खुद को भारत का बादशाह या शहंशाह या चक्रवर्ती सम्राट जैसा कुछ समझते हैं, जिसकी इच्छा ही सर्वोपरि है और जिसका निर्णय ही कानून है। वास्तव में निर्वाचित सत्ताधीश के सर्वोपरि होने की दलील, मोदी राज में सत्ता के प्रधान नैरेटिव के रूप में बार-बार हमें सुनने को मिलती है। यही दलील जरा तिर्यक रूप से खुद प्रधानमंत्री मोदी के दावों में भी हमें सुनने को मिलती है, जब वह 140 करोड़ भारतीयों की ओर से बोलने का दावा ही नहीं करते हैं, यह दावा भी करते हैं कि 140 करोड़ भारतीयों के प्रतिनिधि की उनकी हैसियत, उनकी तमाम आलोचनाओं को, उन के खिलाफ तमाम आरोपों को, खारिज कर देती है। नरेंद्र मोदी के शब्दों में, 140 करोड़ भारतीय उनकी ढाल बन जाते हैं।

इसी तानाशाहाना मिजाज का नतीजा है कि मोदी राज के दस साल में खुद संसद समेत, जनतंत्र की सभी संस्थाओं को कमजोर किया गया है, उनकी स्वतंत्रता को खत्म किया गया है। खुद कार्यपालिका तक में सारी की सारी शक्ति को प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय में केंद्रित किया गया है। संसद की कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करने की भूमिका को लगभग खत्म ही कर दिया गया है। न्यायपालिका को पालतू बनाने की कोशिशों के अलावा, उस पर प्रत्यक्ष नियंत्रण कायम करने के लिए, मोदी राज ने बराबर एक जंग सी ही छेड़े रखी है। मुख्यधारा के मीडिया पर सत्ताधारियों द्वारा करीब-करीब पूरा कब्जा ही किया जा चुका है। ऐसा ही हाल उच्च शिक्षा संस्थानों का है और जेएनयू आदि की तरह जिन इक्का-दुक्का संस्थाओं ने अपवादस्वरूप अपनी स्वायत्तता की रक्षा करने के लिए संघर्ष जारी रखा है, उन्हें शासन द्वारा एक प्रकार से शत्रु-संस्थाएं ही घोषित कर दिया गया है, जिन्हें जीतने की उसकी जंग लगातार जारी रही है। सीबीआई, ईडी, एनआईए आदि व पुलिस बलों, सभी संस्थाओं को सत्ताधारियों के ही नहीं, उनमें भी सबसे बढ़कर बादशाह सलामत और उनके दरबार के औजारों में बदल दिया गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि ये बदलाव, वर्तमान सत्ता के तकाजों के अनुरूप हैं जरूर, लेकिन तात्कालिक तकाजों तक ही सीमित नहीं हैं। वे पूरी राज्य व्यवस्था को ही तानाशाही में तब्दील कर रहे हैं।

और तो और, बहुसंख्यक धार्मिक प्रतिष्ठान को भी महत्वपूर्ण रूप से बदल दिया गया है। एक ओर राम मंदिर और दूसरी ओर सेंगोल जैसे टोटकों के सहारे, न सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी को धार्मिक अनुमोदन-प्राप्त महाराजा के रूप में स्थापित किया गया है, जिसके आगे धार्मिक सत्ता भी व्यवहारत: नतमस्तक है। और दूसरी ओर, इससे भी महत्वपूर्ण रूप से बहुसंख्यक धार्मिकता को, अल्पसंख्यक विरोधी सांप्रदायिकता से खुद को परिभाषित करने के रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ा दिया गया है। इसी का नतीजा हम चुनाव की हाथ से निकलती नजर आती बाजी को बचाने के लिए, अंतिम और इकलौते उपाय के रूप में, मोदी की भाजपा द्वारा चुनाव प्रचार में लौट-लौटकर, मुस्लिमविरोधी सांप्रदायिकता का सहारा लिए जाने के रूप में देख रहे हैं।

यह बेढब होते हुए भी कम से कम हैरान नहीं करता है कि चौथे चरण के मतदान के दिन, गंगा के तट पर एक और छद्म साक्षात्कार में मोदी जी ने अचानक यह ऐलान कर दिया कि वह हिंदू-मुस्लिम नहीं करते हैं, वह हिंदू-मुस्लिम करेें, तब तो वह सार्वजनिक राजनीति के लायक ही नहीं रहेंगे और यह भी कि उनका संकल्प है कि वह हिंदू-मुस्लिम नहीं करेंगे। और चौबीस घंटे भी पूरे होने से पहले-पहले, अगले दिन महाराष्ट्र में वह हिंदू-मुस्लिम करने से भी आगे, इसका ऐलान करने तक चले गए कि उनके विरोधी जीत गए, तो राम मंदिर पर बाबरी ताला लगवा देंगे। बाद में उत्तर प्रदेश में उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधियों से राम मंदिर पर बुलडोजर ही चलवा दिया! बेशक, यह हार की बदहवासी का संकेत है, लेकिन यह इसका भी संकेत है कि तानाशाह के पास यही एक चाल बची है, जिसे वह रह-रहकर आजमा रहा है।


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोक लहर' के संपादक हैं।)

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