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राष्ट्र की सुरक्षा में तैनात जवानों के शहादत का कटु सच.एक और कड़ी.पुलवामा में CRPF के 44 जवानो की मृत्यु! जी हाँ मृत्य-सुजय मंडल।

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कोलकाता – 14 नवम्बर 2015 को की याचिका पर केन्द्र सरकार ने दिल्ली हाई कोर्ट मे हलफनामा दायर कर कहा था कि अर्द्ध सैनिक बलो को शहीद का दर्जा नही दिया जा सकता।

क्योंकि 1947 से कथित परम्पराओ के चलते आज भी अर्ध सैनिक बल यानी BSF, CRPF, ITBP, SSB, CISF और असम राइफल्स के जवान भारतीय सेना( आर्मी) की तरह शहीद नही माने जाते, चाहे ये अर्धसैनिक बल के जवान सरहद पर दुश्मनों या आतंकियो और नक्सलियो से लड़ते हुए अपनी जान देते है लेकिन देश का दुर्भाग्य कहे या सरकार की गलत नितिया लेकिन यह जवान शहीद नही कहलाते हैं।

वैसे तो अर्धसैनिक बल के जवानों के शव पे फूल माला चढ़ाने या मीडिया द्वारा कथित तौर महिमामंडित करने तक ही सीमित है। कथित तौर पर शहीद कह कर देश के सवा सौ करोड़ लोगो को गुमराह किया जा रहा है।

जबकि हमारे जन नेतावो और मीडिया को अच्छी तरह से पता है कि देश पर जान देने वाले अर्ध सैनिकबल के जवान शहीद नही कहे जाते, उन्हें कागजो मे संवैधानिक रूप से मृतक का दर्जा दिया जाता है, ये कटु सच्चाई है।

जिससे अर्ध सैनिक बल का जवान कुंठित और हताश है तो उस दशा में वो किस प्रकार खुश होकर ड्यूटी करे। ऐसा कृत्य राष्ट्र के लिए भयावह और चिंता का विषय है, क्योंकि मामला राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा हुवा है। आज सवा सौ करोड़ लोगो को इस कथित नीतियों के बारे में चिंतन करने की आवश्यकता है।

अब लौटते है मूल विषय पर कि आखिर विशुद्ध रूप से जवान यानी एक सिपाही ही औसतन देश के लिए कुर्बानी क्यों दे रहा।

इस पर गहन चिंतन का विषय है। देश की सरहद या आतंकियो और नक्सलियो से लोहा लेता जवान विशुद्ध रूप से एक किसान का बेटा होता है पिता खेत मे और बेटा सरहद पे!

स्वतन्त्रता उपरान्त आज तक किसान और जवान उपेक्षित रहे। जिसका परिणाम आज भयावह नजर आ रहा। हम सभी जवानों के शहादत पर बंगले झांकते नजर आ रहे ये जन नेता और बुद्धजीवी वर्ग।

जन नेतावो के पास अब कुछ कहने को शब्द ही नही बचे है। अगर कुछ शब्द है तो वो है कड़ी निन्दा व ठोस कदम।

क्योंकि बार-बार वही यक्ष प्रश्न कि आखिर कब तक! क्या सरहद और आतंकियो से जूझता और लड़ता जवान इसे अपनी नियति मान ले! प्रश्न बहुत गंभीर है। वर्दी अलग, नाम अलग,संगठन अलग मगर चेहरे का तनाव एक है बार-बार बैताल पेड़ पर!

आखिर कब तक? निजी स्वार्थ और वोट बैंक तुष्टिकरण की राजनीति की बलिबेदी पर जवान कब तक स्वाहा होते रहेंगे! आखित कब तक!

एक तर्क- जब हालात बद से बदतर हो जाते है तो सुरक्षा बलों को उस क्षेत्र में तैनात किया जाता है और जवान अपने को स्वाहा कर शांति अमन कायम करते है तो फिर देश के नीति नियंता मलाई काटने के तैयार हो जाते है, फिर कुछ वर्षों या दिनों में हालात फिर बद से बदतर हो जाने पर सुरक्षा बलों की तैनाती ! फिर वही क्रम….अनवरत…..बिना किसी बाधा के स्वतंत्रता उपरान्त कथित तौर पे चला आ रहा है।

उदाहरण स्वरूप- कश्मीर और पूर्वोत्तर आदि आदि राज्य।

उपरोक्त तो जवानों की सैद्धांतिक रूप से समस्या थी।

आइए अब जमीनी स्तर पर जवानों के शहादतों के सच को खंगालते है। सम्माननियो, स्वतन्त्रता उपरान्त सुरक्षा बलों के सुविधाओ और साजो सामान पर ध्यान नही दिया गया और मौजुदा सरकार भी पुर्व सरकारो की राह पर चल रही ये सौ फीसदी सच है।

समस्याओ को नजरन्दाज करने हेतु, हमारे देश के योग्य कहे जाने वाले अधिकारी गणों को बेहतर रहन-सहन की सुविधा कथित रूप से प्रदान की गई। ताकि जवानों को चुप रख सके। यानी अंग्रेजो वाली नीति -” बांटो और राज करो” और काफी हद तक कथित सरकारें सफल भी रही।

पर गलत चीज हमेशा गलत ही होती है।

आज नही तो कल भांडा फूटेगा ही और आज वही झूठ का पेड़ खड़ा है और उसके फल निकल रहे है और आज जवान पढ़े लिखे होने और मीडिया, प्रिंट मीडिया और शोशल मीडिया के आ जाने से सच्चाई को छुपाना अब लगभग असंभव सा हो गया है। आज जवान मुखर है।

स्वतन्त्रता उपरान्त उन परियोजनाओ पर ज्यादा ध्यान दिया गया जिसमें वोट बैंक और कमीशन हो और कथित रूप से लोक लुभावन हो। सम्मामनियो, किसी राष्ट्र की एक नीति होती है कि सबसे पहले सुरक्षा और आर्थिक। कोई भी राष्ट्र सुरक्षा और आर्थिक नीति के साथ समझौता नही करता, चाहे विश्व समुदाय की ही क्यों न नाराजगी झेलनी पड़ जाय। कालांतर में, विश्व मे कई देशों ने विश्व समुदाय की चिंता न करते हुए अपने समस्या को हल किया है। जैसे- श्रीलंका एक छोटा सा गरीब देश जिसने ने विश्व समुदाय की परवाह न करते हुए, देश को अक्षुण्य रखने के लिए लिट्टे को नेस्तानाबूद किया, सरकार ने उन पर बम वर्षा भी करने से नही हिचका, जो मानवाधिकार आयोग के हिसाब से हनन के श्रेणी में रखा गया। पर श्रीलंका ने इसकी कोई परवाह न करते हुए राष्ट्र की सुरक्षा को तरजीह दिया और आज श्री लंका अक्षुण्य है।

पर भारत में ठीक इससे उलट है सुरक्षा और आर्थिकी नीति को दोयम दर्जे की श्रेणी में रखा गया, स्वार्थ और सत्ता कथित सरकारों के लिए पहली प्राथमिकता बनी।

सम्माननियो पाठकगणों, अधिकारियों की अनदेखी और जन नेतावो के चलते आज जवान अनायास बड़ी तादाद में जानते हुए मृत्यु को गले लगाने को विवश है!आतंकियो और बाहरी देशों द्वारा युद्ध लड़ने के तरीकों में बदली हुई, आज के इस दौर में पहले के अपेक्षा स्थितिया और परिस्थितियां बदली है , पर अर्द्धसैनिक बलो के लड़ने का अंदाज आज भी बीसवी सदी का है। वही पुराने और नकारा हथियार! वही पुराने और नकारा सिद्ध हो चुके गोला-बारूद! वही पुराने टिन के बैंकर! वही पुरानी जीर्ण-शीर्ण वाहन! नाम तो बदल दिए गए है जैसे बम निरोधी वाहन पर बम तो दूर की बात, दो नाली बंदूक की गोली भी नही रोक सकते । चाहे गाड़ी हो या बैंकर या हेलमेट या बुलेट प्रूफ जैकेट! वही पुरानी नीतियां ! वही पुरानी ट्रेनिंग! वही पुरानी कथित तौर पे अधिकारियों की दबाने की आदत और उल जलूल आदेश और इस सबके बीच घिस-पिट रहा किसान का बेटा जवान!

आज दुनिया आसमां पे पहुंच गई, पर अर्धसैनिक बल का जवान आज भी रस्से पे लटका हुआ है।

वही तो आज भी सुकमा में हुवा। पहले की तरह, पर एक चीज जो जरूर बदली थी, और वो था, एक नया साल सन 2019और आगे भी होता रहेगा । वही शोक संवेदना , कड़ी निन्दा, ठोस कदम, वही मीडिया का भौंडापन, कथित तौर पर शहीद कहकर जनता को बरगलाना और वही 20-पच्चीस लाख की खैरात। ये 20-25 लाख किसी जन नेता के बाप का नही होता। ये पैसा देश के लोगो की खून पसीने की गाढ़ी कमाई होती है।

एक सवाल सरहद और आतंकियो से लड़ रहे जवानों द्वारा-

स्वतन्त्रता उपरान्त क्यों नही एक सुदृढ़ और मजबूत नीति बनी की इतनी संख्या में जवान शहीद ना हो और ये पैसे यू ही न बर्बाद किया जाय, जो आज पानी की तरह बहाया जा रहा, जीरो टॉलरेंस की नीति क्यों नही अपनाई गई ?

बात ये नही की ड्यूटी कागजो पर पूरा है, मायने ये रखता है कि ड्यूटी हो कैसी रही। आज जवान कुंठित और हताश है! कैसे वो अपनी ड्यूटी ठीक प्रकार से करे।

पुलवामा हमले मे सिस्टम फैलियर

जो वाहन जवानो को लेकर जा रहा थे, चूंकि वो वाहन एक एडम व्यवस्था जवा‌न छुट्टी से वापिस जा रहे थे।

तो और भी सवाल उठ खड़े होते है। जैसे क्या एडम परिचालन के लिए “रोड मूव सेंसन” लिया गया था?

अगर लिया गया था अथवा नही लिया गया था, ये जांच का विषय है जो पता लग जायेगा पर सवाल ये है कि मूव होने से पहले रोड को क्लीयर किया गया था, जो एस.ओ.पी में निहित है कि मूव करने से पहले रोड को निरीक्षण किया जाय जिसके लिए कंपनियों में “रोड ओपनिंग पार्टी” होती है, तो क्या उसका पालन किया गया?

मूव होने से पहले आंतक प्रभावित क्षेत्रो में एक नियम के तहत जिसे एस.ओ.पी कहते है उसके के अनुसार “ROP( रोड ओपनिंग पार्टी) की नियुक्ति कर दी गयी थी या नही?

हमारे रक्षा उपकरणों व हथियारों की खरीद मे कितनी बड़ी चूक है, कुछ और सवाल जो अति चिंता का विषय है जो हमारी ब्यवस्था पर प्रश चिन्ह लगाता है और वो है “बम निरोधी वाहन” का नही होना अगर है भी तो उन्की धज्जियां उड़ जाना! क्या ऊपरोक्त व्यवस्था और कथित नीतियों का शिकार एक सिपाही नही है?

सवाल आप सभी प्रबुद्ध जनों,छात्रों,लेखकों,जन हित आंदोलन करने वाले स्वयम सेवियों से,प्रिंट मीडिया से, मीडिया चैनलों से व गृह मंत्री से और अंत मे अपने प्रिय प्रधानमंत्री से ।

क्या करे सरहद और आतंकियो से लोहा लेता जवान! जब एक जवान सरहद या आतंकियो से लड़ता है तो आप सुख की नींद लेते है। जब जवान अपना आज(वर्तमान) देता है तो आपको कल( भविष्य) मिलता है!

पहले भी सब मौन थे! आज भी है! और कल भी मौन रहेंगे! आखिर कब तक जवान बली का बकरा बनते रहेगे ?एक अनकहा दर्द-सुजय मंडल पीड़ित सी आर पी एफ।..जय हिंद (सूजय मंडल)

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