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जाना छत्तीसगढ़ माकपा के पितृपुरुष का आलेख : [ संजय पराते ]

कुमार दा नहीं रहे। उन्हें गए पूरे एक सप्ताह हो चुके हैं। यदि पार्टी में पितृपुरुष की कोई अवधारणा हो, तो उनका जाना छत्तीसगढ़ माकपा के *पितृपुरुष* का जाना है। उनका न रहना संयुक्त मध्यप्रदेश के जमाने से अब तक पिछले पांच दशकों के उनके पितातुल्य डांट-फटकार, प्यार व घरेलू तकरार से छग पार्टी का वंचित हो जाना है, जो आज तक हमारा मार्ग-निर्देशन करता रहा।

छत्तीसगढ़ में पार्टी के वे आधार स्तंभ थे। छग पार्टी को अपने कुशल कलाकारी हाथों से उन्होंने संवारा था। मजदूर आंदोलन में उनकी सक्रियता के दौर में ही भिलाई क्षेत्र में पार्टी का मजबूत राजनैतिक जनाधार बना, जिसकी गूंज 1984 के चुनावों के झंझावाती दौर में, जब श्रीमती गांधी की हत्या के बाद राजीव लहर चल रही थी, हमारी पार्टी ने जीत से कुछ सौ वोटों से दूर रहकर दूसरा स्थान प्राप्त किया था। वह भिलाई में मजदूर आंदोलन का स्वर्णकाल था, जिसकी धमक और चमक पूरे देश में गूंज रही थी और जिसकी पृष्ठभूमि में कुमार दा की 'खामोश' मेहनत ही थी।

तब वे मध्यप्रदेश सीटू के महासचिव थे, लेकिन वे केवल मजदूर आंदोलन के नेता ही नहीं थे। इसी समय हमारी पार्टी का एक सशक्त जनाधार सुदूर उत्तर बस्तर क्षेत्र के नारायणपुर विधानसभा क्षेत्र में आदिवासियों व बंगाली शरणार्थियों के बीच भी विकसित हो रहा था, जिसके सूत्रधार कुमार दा ही थे। पार्टी के अंदर व्याप्त 'मोर्चावाद' की कमजोरी से बाहर आकर उन्होंने इस क्षेत्र की कमान संभाली। यह जनाधार उसके बाद इतना पुख्ता हुआ कि उसके बाद 1989 के विधानसभा चुनाव में यहां भी पार्टी दूसरे स्थान पर खड़ी थी।

 तब बस्तर और खासकर पखांजुर-नारायणपुर में आना-जाना इतना आसान नहींथा।रायपुर से पखांजुर तक केवल एक ही सीधी बस थी, जो दस-बारह घंटे का समय लेती थी। चूंकि वे भोपाल से आते थे, एक-दो दिन की बैठक के लिए अमूमन एक सप्ताह का समय देना पड़ता था। लेकिन अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद यह समय उन्होंने दिया और इतना समय दिया कि अगले दो-ढाई दशकों तक इस क्षेत्र में वामपंथ ही शोषित-उत्पीड़ित विपक्ष की मुख्य आवाज़ बना रहा। उस दौर में कुमार दा की मेहनत, अनुशासन और सांगठनिक कड़ाई को पुराने लोग आज भी शिद्दत और विनम्रता से याद करते हैं। छत्तीसगढ़ में आज भी हमारी पार्टी कुमार दा के रचे संसार के इर्द-गिर्द ही घूम रही है और यह हमारी नाकामी मानी जा सकती है कि इस पुख्ता नींव पर हम कोई मजबूत महल खड़ा करने में अभी तक कामयाब नहीं हो पाए हैं।

राज्य विभाजन के बाद पार्टी केंद्र के निर्देशों पर उन्हें स्थायी रूप से छत्तीसगढ़ आना पड़ा। यह सही भी था, क्योंकि तब के मध्यप्रदेश के पार्टी नेतृत्व में छत्तीसगढ़ को सबसे ज्यादा उसकी छत्तीसगढ़ी रंगीनियत में जानने-समझने-पहचानने वाले वही । वे छग माकपा के पहले राज्य सचिव बने। छत्तीसगढ़ में सचिवमंडल के बाकी सभी सदस्य काम और अनुभव के मामले में उनसे काफी कनिष्ठ थे। नवगठित छत्तीसगढ़ में पार्टी का राज्य-केंद्र खड़ा करना सबसे बड़ी चुनौती थी। इस चुनौती को उन्होंने स्वीकार किया। आज छग में पार्टी का जो स्थायी कार्यालय दिखता है, उसके निर्माण में उनकी भूमिका सबसे ज्यादा थी।

80 साल की उम्र में पार्टी-केंद्र ने उन्हें उनकी सभी जिम्मेदारियों से मुक्त करने का निर्णय लिया। लेकिन इस निर्णय को उन्होंने दिल से कभी नहीं स्वीकारा, क्योंकि उन्होंने अपने-आपको कभी ' *रिटायर*' नहीं माना। रिटायरमेंट के बाद भी उन्होंने छत्तीसगढ़ में रहने को प्राथमिकता दी। राज्य पार्टी ने उनके रहने के लिए विश्रामपुर के कुमदा कोलियरी स्थित सीटू कार्यालय का चुनाव किया, ताकि उनकी उचित देखभाल हो सके। अपने संघर्षशील जीवन के अंतिम वर्ष उन्होंने यहीं बिताए। यूनियन-संबद्धताओं से परे इस कार्यालय में उन्हें उन कोयला मजदूरों का सर्वाधिक प्यार भी मिला, जिनके आंदोलन को उन्होंने ही गढ़ा-संवारा था। छत्तीसगढ़ माकपा कुमार दा की इस देख-रेख के लिए सभी मजदूर साथियों की ऋणी हैं।

पार्टी के सर्वोच्च नेता से एक साधारण पार्टी सदस्य के रूप में जीवन जीना आसान काम नहीं है। लेकिन पार्टी के अनुशासन को उन्होंने आत्मसात किया था और एक साधारण पार्टी सदस्य के रूप में भी अपनी जिम्मेदारियों के प्रति वे सचेत थे। पार्टी-जीवन के इस रूप में भी उनकी 'सर्वश्रेष्ठता' सामने आई। पार्टी का साधारण सदस्य भी एक सक्रिय पार्टी सदस्य होना चाहिये, जिसे पार्टी द्वारा निर्धारित न्यूनतम पांच मानदंडों को पूरा करना चाहिए। कुमार दा इन मानदंडों पर खरे उतरते थे। पार्टी को पूरी लेवी की अदायगी, पार्टी मुखपत्र व साहित्य का नियमित वाचन और इसके लिए लोगों को प्रेरित करना और उनके पीछे पड़ना, पार्टी व सीटू के हर आंदोलन/अभियान/संघर्षों में उनकी हिस्सेदारी करना -- उनके पार्टी कामों की प्राथमिकता रही। ब्रांच की बैठकें नियमित हों, इसके प्रति वे हद दर्जे के आग्रही बने रहे। इस कमजोरी को दूर करने के लिए राज्य-केंद्र को वे नियमित रूप से आगाह करते थे। साधारण पार्टी सदस्यों में सर्वश्रेष्ठता का यही रूप हमें पार्टी व सीटू सम्मेलनों में उनकी उपस्थिति के जिद-भरे आग्रह को मानने के लिए बाध्य भी करता था।

 विश्रामपुर में आयोजित पार्टी के पिछले राज्य सम्मेलन को सफल बनाने के लिए उनकी सक्रियता को भूला नहीं जा सकता। उन्हीं की पहलकदमी पर बाजार में हजारों रुपयों का डब्बा-कलेक्शन किया गया। अपनी राजनैतिक सक्रियता से ही उन्होंने सिद्ध कर दिया कि शरीर कमजोर पड़ सकता है, लेकिन एक कम्युनिस्ट की सक्रियता कभी खत्म नहीं होती, क्योंकि यह सक्रियता उसके स्वयं के सेहत को बनाने के लिए नहीं, बल्कि शोषण आधारित समाज के वर्गीय चरित्र में बुनियादी बदलाव लाने की उसकी जिजीविषा से जुड़ी होती है। इस समाज की मुक्ति में ही इंसान की मुक्ति संभव है और इसीलिए एक कम्युनिस्ट कभी रिटायर नही होता। अपने अंतिम सांस तक वह इसे बनाने-संवारने में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देता है। कुमार दा ने अपने सर्वश्रेष्ठ योगदान को समाज और पार्टी के लिए सुनिश्चित किया।

कुमार दा के साथ मेरे संबंध तब बने, जब हम एसएफआई के 'बिगड़ैल बच्चे' थे और इस संगठन की राज्य समिति की बैठकों में भोपाल में भेल ऑफिस जाते थे। उस समय कुमार दा का निवास उसी ऑफिस में हुआ करता था। उनका अनुशासन और हम लोगों की अनुशासनहीनता तब तकरार का विषय हुआ करती थी। उनके सैन्य अनुशासन से तब हम लोग पीड़ित थे। लेकिन इस अनुशासन की तपस्या का महत्व आज हमें समझ में आता है, जब हमारे देश में वामपंथी आंदोलन एक विशेष संकट के दौर से गुजर रहा है।

7 नवम्बर की सुबह विश्रामपुर बाजार में चलते हुए वे गिर पड़े। सिर में चोट आई। लल्लन सोनी, जे एस सोढ़ी और अन्य साथियों ने मिलकर तुरंत उपचार कराया। लेकिन अस्पताल में भर्ती होने से उन्होंने इंकार कर दिया, जिसकी उन्हें सख्त जरूरत थी। 9 नवम्बर की सुबह वे अचेत हो गए। रायपुर एम्स के लिए उन्हें तुरंत रवाना किया गया, लेकिन बीच रास्ते बिलासपुर में ही शायद उन्होंने अंतिम सांस ली। एम्स में उनके पार्थिव देह को लल्लन सोनी, अमरीक सिंह और पूर्णचन्द्र रथ ने सहारा दिया। हमारी आशंका को चिकित्सकों ने पुष्ट किया। हम उनके पार्थिव शरीर का दान करना चाहते थे, लेकिन पोस्टमार्टम की बाध्यता के कारण यह संभव नहीं हुआ। नेत्रदान की कोशिश भी देर हो जाने के कारण व्यर्थ हुई।

अंतिम बार वे उसी कार्यालय आये, जिसके वे बॉस थे। लाल झंडे में लिपटे उनके शव को मुझ सहित सचिवमंडल के साथियों एम के नंदी, बी सान्याल, वकील भारती, राज्य समिति सदस्यों प्रदीप गभने, एस सी भट्टाचार्य, शांत कुमार, समीर कुरैशी सहित रायपुर, दुर्ग, धमतरी और बिलासपुर से आये साथियों ने फूल चढ़ाकर अपनी सलामी और श्रद्धांजलि अर्पित की। पूरे पार्टी-सम्मान के साथ उनकी शव यात्रा निकाली गई। उनकी अंत्येष्ठि में प्रदेश के मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार रुचिर गर्ग भी शामिल हुए। बिना किसी धार्मिक रस्म के ' *लाल_सलाम* के नारों के साथ उन्हें विदाई दी गई। जब उनकी चिता जल रही थी, सूर्य ढल रहा था और दोनों की लालिमा एकाकार हो रही थी।

यह सत्य है कि जनता ही इतिहास बनाती है, लेकिन इस इतिहास का विशेष काल-खंड समाज के नायकों को भी पैदा करता है, जो जनता के दुख-दर्दों को अपना स्वर देते हैं, उन्हें संघर्ष की परिधि में खींच लेते हैं। कुमार दा का नायकत्व भी इसी से जुड़ा है।

अब ऐसे कुमार दा को हम कहां से लाएं कहां खोजें उन्हें !! कुमार दा के जीवन से यदि कुछ सीखा जा सकता है, तो वह है अपना सर्वश्रेष्ठ पार्टी व समाज को अर्पित करना। हम केवल उनकी सर्वश्रेष्ठता का अनुकरण भर कर सकते हैं।

छत्तीसगढ़ माकपा अपने पितृपुरुष की यादों को संजोते हुए उन्हें अपनी #भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करती है। कामरेड कुमार दा को लाल सलाम!!

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