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भारत के नए मुख्य न्यायमूर्ति के समक्ष उठाया जाएगा फ़र्जी जाति प्रमाण पत्र का मामला

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नवंबर 18 को पद भार ग्रहण करते ही भारत के नए मुख्य न्यायमूर्ति श्री शरद अरविंद बोबड़े के समक्ष फ़र्जी जाति प्रमाण पत्र मामला उठाने की तैयारी की जा रही है। प्रधानमंत्री के अधीन कार्यरत कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के सचिव के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय की आपराधिक अवमानना का मुकद्दमा दायर किया जा रहा है। न्यायमूर्ति बोबड़े उच्चतम न्यायालय के दुर्लभ वर्तमान न्यायाधीश है फ़र्जी जाति प्रमाण पत्र पर जिनका कड़ा रूख स्थापित है। न्यायमूर्ति बोबड़े बॉम्बे उच्च न्यायालय की उस पूर्ण पीठ के सदस्य थे जिसने रमेश कांबले बनाम महाराष्ट्र राज्य फ़ैसला (2006) दिया था जिसके आधार पर न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने उच्चतम न्यायालय में फ़ूड कार्पोरेशन बनाम जगदीश बहिरा मुकद्दमे का ऎतिहासिक फ़ैसला (2017) देते हुए कहा था छानबीन समिति के समक्ष साक्ष्य न दे पाना ही संदिग्ध की आरक्षित पद/सीट छीन लेने के लिए काफ़ी है; दुर्भावना की जांच ज़रूरी नहीं।

जनजातीय शासकीय सेवकों की बड़ी शिकायत रही है कि गैर-जनजाति के लोग फ़र्जी जाति प्रमाण पत्र बना कर उनका हक मार रहे हैं। खास तौर पर महाराष्ट्र-विदर्भ मूल के कोष्टि पिछड़ी जाति के हज़ारों व्यक्ति हल्बा जनजातीय नस्ल से संबद्ध होने का दावा कर के मध्य-प्रदेश/छत्तीसगढ़ में भी जनजाति-आरक्षित पदों पर कव्जा जमाए बैठे हैं। उच्चतम न्यायालय की बड़ी पीठों ने कई बार स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश की और महाराष्ट्र (2001), छत्तीसगढ़ (2013) राज्यों की विधानसभाओं ने जाति प्रमाण पत्र सत्यापन पर मजबूत अधिनियम तक पारित कर दिए लेकिन अपने दबाव समूह की प्रबल राजनैतिक-आर्थिक शक्ति के सहारे शासकीय-आदेश/परिपत्र और न्यायालय की अन्य पीठॊं से सुरक्षा लेकर कोष्टि जाति के लोग अब भी जनजाति-आरक्षित पदों पर अनधिकृत कब्जा किए बैठे हैं।

 

उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने मिलिंद कटवारे मुकद्दमे में नवंबर 2000 में स्पष्ट कर दिया कि कोष्टि जाति के लोग हल्बा नस्ल का हिस्सा नहीं हैं। कोष्टि जाति के शासकीय कर्मी बार बार नए बहाने बना कर शासन और न्यायालय की अन्य पीठों से राहत प्राप्त करते रहे। कोष्टि जाति के शासकीय सेवकों द्वारा दावे किए गए कि नवंबर 2000 के पूर्व स्थायी किए जा चुके नियुक्ति/भर्ती के मामले सुरक्षित होंगे, जाति प्रमाण पत्र सत्यापन अधिनियम लागू होने के पहले जारी किए गए दस्तावेजों के आधार पर हुई नियुक्ति/भर्ती सुरक्षित रहेगी, हटाने से पहले विभागीय जांच ज़रूरी होगी, दी जा चुकी सेवा के वित्तीय लाभ सुरक्षित होंगे, हित-विरुद्ध कार्रवाई करने के पहले यह भी देखना होगा कि संदिग्ध ने कोई धोखाधड़ी की या उससे निर्दोष भूल हुई आदि आदि।  यह संदिग्ध शासकीय सेवक उच्च और उच्चतम न्यायालय से स्थगन आदेश लेकर मामले को सालों लटकाते रहे, मंत्रालयीन अधिकारियों के सहयोग से जनजातियों का हक मारते रहे और लघु पीठों से मिले राहत के फ़ैसलों का प्रचार करते रहे। भारत सरकार के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग ने वर्ष 2010 में एक ऑफ़िस मेमोरेंडम जारी कर के कोष्टि जाति के कर्मियों के नवंबर 2000 के पूर्व स्थायी किए जा चुके नियुक्ति/भर्ती के मामलों में सेवा सुरक्षित कर दी।

 

जुलाई 2017 में उच्चतम न्यायालय की तीन जजों की पीठ ने बहिरा फ़ैसले में 104 पृष्ट के लंबे फ़ैसले में पूरा इतिहास घेरते हुए कोष्टि जाति के इन सभी बहानों का एक-एक कर के निराकरण कर दिया। इसके बाद आदिवासी समाज में आशा जागी थी कि अब शासकीय पदों से कोष्टि जाति के फ़र्जी जाति प्रमाण पत्र वाले लोगों की छुट्टी होगी, लेकिन ऎसा नहीं हुआ। डीओपीटी के वर्ष 2010 के ऑफ़िस मेमोरेंडम का ज़िक्र भी बलराम फ़ैसले में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने किया था। इस मेमोरेंडम के खिलाफ़ उसी साल अलग से उच्चतम न्यायालय का फ़ैसला भी आया लेकिन अगस्त 2018 तक कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग ने इसे वापस लेना टाला। अक्टूबर 2018 में उच्चतम न्यायालय की दो-जजों की एक पीठ ने गजानन निमजे और एस.जी. बारापत्रे मुकद्दमों में रिज़र्व बैंक और फ़ूड कार्पोरेशन के लगभग तीन सौ कोष्टि कर्मचारियों को सीमित राहत दे दी क्योंकि उनके पास जाति सत्यापन के लिए पुराने कागज़ात नहीं थे। हल्बा संगठन इन दो फ़ैसलों को पलटाने की कार्रवाई नहीं कर सके जबकि यह निर्णय विधि-विरुद्ध थे और पूरी संभावना थी कि इन्हें पलट दिया जाता। न्यायमूर्ति जोसेफ़ ने इन फ़ैसलों में साफ़ किया था कि वे सीमित राहत सिर्फ़ उन्हीं याचिकाकर्ताओं को दे रहे हैं जिनके नाम उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ के वर्ष 2012 के एक फ़ैसले में दर्ज़ हैं। भारत सरकार के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग ने कोष्टि प्रतिनिधियों के इशारे पर अप्रैल 2019 में एक आदेश जारी कर इन दो फ़ैसलों पर सभी मंत्रालयों, विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों से कार्रवाई करने का निर्देश दिया। इस ऑफ़िस मेमोरेंडम में बहुत चालाकी से राहत देने वाले पैराग्राफ़्स की पहली लाईनें हटाकर यह छवि बनायी गई कि सभी कोष्टि शासकीय सेवकों की नवंबर 2000 के पूर्व स्थायी की जा चुकी नियुक्ति/भर्ती सुरक्षित होगी। इस तारीख के बाद प्राप्त किए गए लाभ वापस करने होंगे और इसमें हल्बा भी शामिल होंगे। डीओपीटी के इस आदेश के परिपालन में कई विभागों ने तत्परता दिखाई; जैसे कि हैदराबाद स्थित डीआरडीओ कार्यालय ने छत्तीसगढ़ मूल के तीन हल्बा शासकीय कर्मियों को रिकवरी नोटिस जारी कर दिया।  ह

ल्बा महासभा के पदाधिकारियों ने एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता से माह जुलाई में सलाह मांगी थी और यह तय किया गया कि इस दुर्लभ अवसर का लाभ लेते हुए मुकद्दमे दायर करने चाहिए। अगर भारत सरकार के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के सचिव जैसे शक्तिशाली और उच्चासीन अधिकारी के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय का निर्णय आ जाता है तो चालीस सालों से चल रही फ़र्जी जाति प्रमाण पत्र के खिलाफ़ सबसे बड़ी लड़ाई में आदिवासी समाज की बड़ी विजय होगी। अत्याचार निवारण अधिनियम के मामले में भी मात्र दो कार्यालयीन आदेशों के साक्ष्य से अपराध सिद्ध होता दिख रहा है। इसके बाद कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग खुद ही ज़ोर देकर अनधिकृत कब्जा किए हुए कोष्टि शासकीय कर्मियों की बर्खास्तगी करने को मजबूर हो जाएगा। लेकिन भाजपा के निकट रहे कुछ सामाजिक पदाधिकारी कानूनी कार्रवाई करने के बजाए बार-बार दिल्ली की यात्रा कर के मंत्री से याचना करने में लग गए।

 

चार दशकों से फ़र्जी जाति प्रमाण पत्र की समस्या से जूझने के बाद जब उच्चतम न्यायालय में इतनी बड़ी हार हुई तो महाराष्ट्र के जनजातीय शासकीय सेवक संगठनों ने हाथ खड़े कर दिए। जब निर्णायक लड़ाई लड़ने का समय आया है तब स्वार्थी तत्वों की टुच्ची राजनीति आदिवासी-हित के आड़े आ गई है। अगस्त के प्रथम सप्ताह में पांच-सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल की दिल्ली विमान यात्रा और होटल बिल के खर्च के लिए हल्बा महासभा (बालोद) के महासचिव द्वारा संगठन के कोष से डेढ़ लाख की मांग किए जाने पर महासभा में लेखा-जांच और पारदर्शिता का विवाद खड़ा हो गया है। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की ही तरह छत्तीसगढ़ में भी गोंड़ समाज ने इस संघर्ष के लिए आर्थिक सहयोग देने से इनकार कर दिया है। कोष्टि शासकीय कर्मी आदिवासी संगठनों से हमेशा एक कदम आगे रहे हैं जबकि आदिवासी समाज विधिक-विद्वानों से सहयोग लेने के बजाए टुच्ची राजनीति में व्यस्त रहता है। फ़र्जी जाति प्रमाण पत्र के खिलाफ़ सबसे बड़ी लड़ाई भी आदिवासी समाज के स्वार्थी तत्वों की इसी खींचतान में कमज़ोर हो रही है।

हल्बा महासभा (बालोद) के अध्यक्ष और छग सर्व आदिवासी समाज के कार्यकारी अध्यक्ष श्री भगवान सिंह रावटे ने इस संघर्श की कमान अपने हाथ में ली है। फ़र्जी जाति प्रमाण पत्र के खिलाफ़ सबसे बड़ी लड़ाई के लिए छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज के भूतपूर्व विधिक सलाहकार बी.के.मनीष को यह ज़िम्मेदारी सौंपी गई है। ध्यान रहे कि पत्थलगड़ी आंदोलन का विरोध करने पर सर्व आदिवासी समाज ने अपने तत्कालीन विधिक सलाहकार को बाहर कर दिया था। अब रायपुर-नियुक्त, हल्बा जनजाति के एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी के निवेदन पर बी.के.मनीष ने इस मामले में रणनीतिक और विधिक सलाहकार की भूमिका संभाल ली है। अक्टूबर माह के पहले सप्ताह में भारत के अटार्नी जनरल को आवेदन दे कर आपराधिक अवमानना का मुकद्दमा दायर करने की शर्त पूरी कर ली गई है। उम्मीद की जा रही है कि छग उच्च न्यायालय बिलासपुर के आनंद मसीह सरीखे मामलों में भी जनजाति-हित का नया मोड आएगा।

[ फोटो 1. ऊपर-बी के मनीष, 2- नीचे, भगवान सिंह रावटे ]

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