प्रेम न भोग है,ना त्याग
न ही वीणा के तारों पर
झंकृत, सधा हुआ कोई राग।
प्रेम तपस्या भी नही है, औऱ
न है सुख की तलाश।
प्रेम तो है एक स्वछंद उच्छ्वास
प्रेम तो है शीत में गुनगुनी
धूप का अहसास;
जो मोम के तरह जमे अवसाद को
जाने कब - कहां कैसे।
पिघला देती है और
यकायक पोर-पोर में जाग
उठता है जीवन
हो जाता है उर्जित तन और मन ।
सुनील कुमार गुप्ता [ चिरमिरी]