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छत्तीसगढ़ आदिवासी छात्र संगठन की महामहिम राज्यपाल को दो टूक... राजनैतिक बयानबाज़ी से बचें महामहिम राज्यपाल-

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राजनैतिक बयानबाज़ी से बचें महामहिम राज्यपाल, ठोस-व्यावहारिक कार्रवाई पर ध्यान दें-

राजभवन द्वारा जनजातीय हित सुनिश्चित करने की दिशा में किए नए प्रयासों को लेकर जनसंपर्क का काफ़ी काम पिछले दो महीने में हुआ है। परंतु जनजातीय हित के असली मुद्दों पर कोई ठोस काम करना टाला जा रहा है। इस राजनैतिक बयानबाज़ी में संविधान के प्रावधानों और उच्चतम न्यायालय की उन पर व्याख्या की उपेक्षा की जा रही है। राजभवन द्वारा इस दिशा में इमानदाराना कार्रवाई से बचने के लिए प्रखर जानकारों का उपहास-उपेक्षा किया जाता है जिसका नतीजा है कि जनजातीय-हित की चर्चा राजनैतिक सौदेबाज़ी बन कर रह गई है। दुर्भाग्य से स्वयं आदिवासी समाज के जन-प्रतिनिधि एवं ज्यादातर सामाजिक संगठन भी जनजायीत-हित के असली मुद्दों पर सुसंगत मांग पत्र द्वारा निश्चित कार्रवाई का जन-दबाव बनाने में अयोग्य और अक्षम रहे हैं।

जनजाति सलाहकार परिषद की अध्यक्षता गैर-राजनीतिक व्यक्ति करे यह बयान देकर महामहिम राज्यपाल ने जनजाति समाज की वाहवाही बटोरने की कोशिश की है। पांचवीं अनुसूची में राज्यपाल की भूमिका को लेकर अविभाजित मध्य प्रदेश के समय से जो दुष्प्रचार किया जाता रहा है उसे महामहिम श्रीमती अनुसूईया उईके के कार्यकाल के प्रारंभ होते ही नए आयाम देने का काम प्रारंभ हुआ है। इससे गैर-ज़रूरी कांग्रेस बनाम भाजपा संघर्ष होकर रहेगा। जनजातीय हित-साधन को अनावश्यक और टुच्ची पार्टीगत राजनीति से बचाने के लिए छत्तीसगढ आदिवासी छात्र संगठन द्वारा विधिक स्पष्टता प्रदान की जा रही है।

उच्चतम न्यायालय की पांच, सात, नौ और ग्यारह सदस्यीय संविधान पीठों ने क्रमश: रामजवाया कपूर, समशेर सिंह, बोम्मई और कावसजी कूपर मुकद्दमों में स्पष्ट किया है कि राज्यपाल सामान्यत: हमेशा अपने मंत्रि-परिषद की सलाह पर ही कार्य करेंगे, सिवाय उन कॄत्यों के जिनके विषय में संविधान में ही विवेकाधिकार का ज़िक्र है या फ़िर वह ऎसे कृत्य हैं जिन पर मंत्रि-परिषद की सलाह व्यावहारिक तौर पर संभव ही नहीं है। ध्यान रहे कि राज्यपाल को राजनैतिक/सैद्धांतिक मुद्दों पर राज्य की मंत्रि-परिषद को सुझाव देने का कोई अधिकार नहीं है। आपातकाल एवं राष्ट्रपति शासन के अतिरिक्त किसी अन्य समय राज्यपाल केंद्र सरकार को भी स्वतंत्र रूप से कोई सुझाव नहीं दे सकते, और न ही वे उसके एजेंट के रूप में कार्य करेंगे (हरगोविंद पंत बनाम रघुकुल तिलक- संविधान पीठ)। दुर्भाग्य से आज तक उच्चतम न्यायालय की किसी संविधान पीठ ने पांचवीं अनुसूची के उद्देश्य, इसकी कार्यप्रणाली और शेष संविधान के प्रावधानों से इसके अंतर्संबंधों पर कोई समग्र फ़ैसला नहीं दिया है। वैसे पांचवीं अनुसूची में राज्यपाल को मात्र चार ज़िम्मेदारियां दी गई हैं- राष्ट्रपति को अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में वार्षिक/विशेष रपट भेजना, जनजाति सलाहकार परिषद के नियम/एजेंडा बनाना, अधिसूचना/विनियम द्वारा विशिष्ट-एकल विधायिका का कार्य करना और अनुसूचित क्षेत्रों की सीमाओं में परिवर्तन करने के लिए राष्ट्रपति की मांग पर सलाह देना। ध्यान रहे कि अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में राज्यपाल की रपट के आधार पर ही केंद्र सरकार द्वारा उस मामले पर निर्देश देने की संभावना बनेगी। संविधान में अलग से ज.स.प. प्रावधानित करने का उद्देश्य यह है कि विधायी और कार्यपालिक प्रक्रियाओं और अन्य विषयों पर अलग से, जनजाति-हित के खास नज़रिए से, पुनर्विचार करने के लिए एक संवैधानिक संस्थान उपलब्ध हो जिसकी सलाह को शासन समुचित गंभीरता से ले। का किसी भी मंत्री अथवा नौकरशाह की ज.स.प. में सदस्य अथवा पदेन उपस्थिति ज.स.प. के मूल उद्देश्य को ही खारिज कर देती है। इसलिए पहले दो काम ऎसे हैं जो राज्य की मंत्रि-परिषद् की सलाह पर करना व्यावहारिक नहीं है अत: इन्हें राज्यपाल को स्व-विवेक के आधार पर करना चाहिए। शेष दोनों कार्य राज्य की मंत्रि-परिषद् की सलाह के बगैर या उसके विपरीत करना लोकतांत्रिक मूल्य के विरुद्ध होगा।

राज्यपाल के जनजाति हित को लेकर जारी हो रहे बयानों से पदीय सीमाओं का लगातार उल्लंघन हो रहा है और इससे आदिवासी अधिकारों के नाम पर जारी दुष्प्रचार को भी बल मिलता है।यदि राज्यपाल जनजाति हित को लेकर गंभीर हैं तो उन्हें तत्काल छ.ग. जनजाति सलाहकार परिषद् नियम 2006 में आदिवासी छात्र संगठन द्वारा सुझाए गए व्यापक संशोधन कर के नए नियम अपने विवेकानुसार बनाने चाहिए। तब यदि विवाद हुआ भी तो वह गरिमापूर्ण और संवैधानिक विवाद होगा।

 

 

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